Monday, April 11, 2011

आइये सोचें

जीवन दो तरह से जिया जा सकता है। एक , इसमें खो-डूब कर, दूसरे इसे नश्वर मान कर इस तरह, जैसे कमल के पत्ते पर से पानी की बूंद गुज़रती है।दोनों ही सूरतों में यह कट जाता है। जीवन के आरंभ से अब तक कहीं भी, कोई भी ऐसी मिसाल नहीं है, जब किसी तरह से भी जीने पर यह रुक गया हो। मज़े की बात यह है कि आज की दुनिया में भी हमें बहुतायत से ऐसे लोग मिल जाते हैं, जिन्हें गर्मी में लगता है, बिना एसी के मर जायेंगे। थोड़ी सी सर्दी में लगता है, बिना हीटर के मर जायेंगे। पर ऐसा होता नहीं है। वह दौर भी गुज़रा है जब हम पेड़ों पर रहे, वह समय भी निकला जब हमारे पास आग ही नहीं थी। वह समय भी रहा जब जीवन के कड़े अनुशासनों को बनाये रखने के लिए जीवन ही ख़त्म कर दिए गए, अर्थात फांसी तक दे दी गयी। ज़मीन की लकीरों को अपने पक्ष में बनाये रखने के लिए युद्धों में हजारों लोगों को मार डाला गया। यदि हम जीवन के इस नज़रिए को झेलने के आदी हो जाएँ तो कहीं कोई उलझन ही न रहे। जहाँ जो भी , जैसे भी हो रहा हो, हम निर्लिप्त बने रहें।पर क्या यह जीने का स्वस्थ और अपेक्षित तरीका है? क्या हम अपने आप को और अपनी नई पीढ़ी को इस नज़रिए के लिए मानसिक रूप से तैयार करें? मुझे ऐसा नहीं लगता। जीवन का असली सार इसमें खो-डूब कर जीने में ही है। क्योंकि जीवन नश्वर नहीं है। हम सब यहाँ से जाने को तैयार नहीं हैं। हम भरसक यह कोशिश कर रहे हैं कि शरीर से अशक्त और जर्जर होने से पहले अपने प्रतिरूप, अपने कई लोग यहाँ छोड़ दें। हमारी यह उत्कट महत्वाकांक्षा जल्दी ही हमें विश्व में नंबर एक का दर्ज़ा दिया चाहती है। हम एक सौ इक्कीस करोड़ हो चुके हैं। ग्लोब की बैलेंस-शीट पर हम देयताओं की जगह आस्तियों में कैसे आ सकते हैं, आइये, सोचें।

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