Thursday, May 26, 2011

ईटिंग एरा [भक्षण युग]

[मनुष्य में सब जीवों की आत्मा का अंश डाला गया है, वह सब का सा बर्ताव करेगा-"बेस्वाद मांस का टुकड़ा" से]
जंगल खाए लकड़ियाँ, गाँव खेत को खाय 
खाने का युग आ गया, नगर गाँव खा जाय  
खा-खा कर भी ना बचे, जान शहर की जाय 
अब शहरों की बोटियाँ, महानगर खा जाय 
चोर-लुटेरा और पुलिस, एक थाल में खाय 
फिर सबको थाली सहित, नेताजी खा जाय 
नेताजी की कुंडली, जनता के घर आय 
पांच बरस बीते नहीं, जनता उनको खाय 
जनता ठहरी बावरी, बुद्धू भी बन जाय 
अदल-बदल कर भेस फिर, वो ही नेता  आय 
सड़कें फैलें खेत में, खेत पेड़ खा जाय 
रोज़ नवेली कार-बस, रस्ते को खा जाय 
बाइक-स्कूटर चलें, कारों को सरकाय
बेचारों की जान को, पेट्रोल खा जाय 
ठेके सरकारी हुए, कैसा मौसम आय 
अफसर-ठेकेदार मिल, सड़कों को खा जाय 
सरकारी अफसर बड़ा, चीनी-नमक न खाय 
करे डाक्टर बंद सब, रुपया हो तो खाय 
पानी,बिजली,फोन सब, दे गड्ढा खुदवाय 
सरकारी खैरात अब, गड्ढे में पड़ जाय
भारी बस्ता पीठ पर, बच्चे को खा जाय 
मोटी-मोटी फीस फिर, पापाजी को खाय 
बना अगर जो डाक्टर, जिगरा-गुर्दा खाय
बनकर वो इंजीनियर, पुलिया को खा जाय 
अफसर चला विदेश कह, कालेधन को लाय
माल वहां पर छोड़ कर,टीए-डीए खाय 
खाने के इस दौर में, ये कैसा दिन आय 
जो गरीब था, आज भी, वो बैठा गम खाय.     


2 comments:

  1. bahut kamaal ki hai yeh kavita aur sarasar sach bhi.last line to samjho jaan hai is kavita ki.ati uttam.likhte rahiye maa sarasvati ji ki aseem krepa hai aap par.aabhar.

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  2. aapki hosla afzai ke liye aabhari hoon.

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