Thursday, June 16, 2011

"घाना" और पत्रकारिता की पैनी नज़र

सारे अफ़्रीकी महा-द्वीप में पत्रकारिता की चुनौतियाँ बिखरी पड़ी हैं. दक्षिण अफ्रीका अपनी तमाम पत्रकारिता के प्रति जागरूकता के बावजूद प्रेस का सपाट लक्ष्य रहता आया है. 
पत्रकारिता की चुनौती किसी जगह तभी मुखरित होती है जब वहां 'जीवन' मुखरित न हो रहा हो, या कठिन रास्तों से गुज़र रहा हो. वर्ना सम्पन्नता तो विज्ञापन-बाज़ पत्रकारिता को जन्म देती है. 
घाना के 'द न्यू क्रूसेडिंग' को भारत द्वारा स्थापित प्रतिष्ठापूर्ण पुरस्कार दिया गया है. यह भी एक सच है कि सार्थक पत्रकारिता पुरस्कारों से न तो संचालित हुई है और न ही प्रभावित,फिर भी इस पुरस्कार से ख़बरों के खिलाड़ियों की हमारी परख कसौटी पर तो आई है. इस पुरस्कार पर किसी टीका-टिप्पणी की ज़रुरत इसलिए नहीं है कि हम अभी कम से कम विदेशी पुरस्कारों की पवित्रता पर अपने आंतरिक पुरस्कारों की भांति घोटालों का रंग चढ़ाने के दौर में नहीं पहुंचे हैं.
यह अच्छी बात है कि भारतीय समाचार जगत की ओर से विश्व-स्तरीय पुरस्कार की स्थापना हुई है. किन्तु दुःख इस बात का है कि औरों को पुरस्कृत करने की हमारी सदाशयता यह साबित नहीं कर रही कि हम पत्रकारिता के सर्वोच्च मूल्यों के पक्षधर हैं. आज हमारे अपने अखबारों और समाचार-चैनलों का हाल यह है कि हम किसी भी खबर पर किसी भी सुर की टिप्पणी सुन सकते हैं, केवल चैनल बदलने की देर है. राजनैतिक दलों से मोटा पॅकेज लेकर हमारे अखबार खुल्लम-खुल्ला उनके प्रवक्ता बन जाते हैं. पैसे लेकर छपने वाली ख़बरों में सत्यांश कितने प्रतिशत होता होगा, यह किसी गंभीर शोधार्थी की रूचि की बात हो सकती है. ऐसी ख़बरें केवल पत्रकारिता के मर्म को चोट पहुंचाने के प्रयत्न ही होते हैं. यह कभी पुरस्कृत नहीं हो सकते क्योंकि ये बड़े खतरनाक होते हैं. 
खुद हमारे देश की पत्रकारीय नीयत आज दाव पर लगी हुई है.हमारा ईमान जानता है कि हम क्या-क्या छाप रहे हैं, किसलिए छाप रहे हैं.
पर यह भी बेहद खतरनाक होगा कि हम सारे समाचार-जगत पर पक्षपात या व्यावसायिकता का आक्षेप जड़ दें. क्योंकि कई लोग अब भी जान हथेली पर लेकर दुनियां मैली होने से बचा रहे हैं. ऐसे लोगों की संख्या कितनी भी कम सही, जब तक "एक" भी है, उसे बचाया जाना चाहिए.         

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