Thursday, June 23, 2011

हम जानते हैं कि हम क्या हैं, पर यह नहीं जानते कि हम क्या हो सकते हैं

कहा जाता है कि यदि अपने बच्चों के सामने दूसरों के बच्चों की तारीफ करो तो अपने बच्चों में हीन-भावना आ जाती है. इसी तरह यदि अपनी बीबी के सामने दूसरे की बीबी की तारीफ़ करदो, तब तो क़यामत ही आ जाती है. मैं सोचता हूँ कि यह बात शायद देशों के मामले में भी लागू होती है. यदि हम लगातार दूसरे देश की तारीफ करें तो हमारी अपनी राष्ट्रीयता की भावना आहत हो जाती है.
इस बारे में लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है, किन्तु मुझे यह भी लगता है कि श्रेष्ठ को श्रेष्ठ कहने की भावना का सम्मान तो सभी को करना ही चाहिए. यदि हम अपने बीबी-बच्चों को भी दूसरों की खूबी इस तरह सुनाएँ कि इस से उनका और भी बेहतर बनने का हौसला बढ़े, तो शायद वे भी बुरा न मानें. सबसे पहले तो मन से यह भ्रान्ति निकालना ज़रूरी है कि किसी एक की तारीफ करने का मतलब यह कदापि नहीं है कि बाकी सबकी हेठी की जा रही है.किसी एक समय में एक की तारीफ करके तो हम केवल उस व्यक्ति के किसी गुण विशेष पर टॉर्च डाल कर उसे समय-विशेष पर रेखांकित कर उभार रहे होते हैं. 
उदाहरण के लिए यदि आप गाँधी और अंबेडकर की बात करते हुए किसी बात पर  कहते हैं कि गाँधी इस विषय पर अंबेडकर से राय लेते थे तो इसका अर्थ यह कभी भी नहीं है कि गाँधी अंबेडकर की  तुलना में कम समझ रखते थे. बल्कि इसका सीधा-सादा मतलब यह है कि हम अंबेडकर की किसी क्षमता को रेखांकित कर रहे हैं. किसी के व्यक्तित्व के आयामों में बहुरंग खूबियाँ जोड़ने की कला हम इसी को तो कहते हैं. दूसरों के गुणों की इस पिंजाई से निकले तार हमारी अपनी क्षमता को बढ़ा दें, यही हमारा अभीष्ट होता है. सोचिये, यह भला किसी भी कोण से गलत कहाँ होता है?
हम यह जानते हैं कि हम क्या हैं, पर ऐसे प्रयोगों से हम क्या हो सकते हैं, यह भी तो आजमा कर देखें.       

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