Saturday, July 2, 2011

"प्यारा" से तुक मिलाने को बेचारा "मारा" गया

जिस तरह हम घर में बगीचा, क्यारी या किचन-गार्डन बना कर अपने चारों ओर फूल व हरियाली खिला लेते हैं, ठीक वैसे ही, यदि हम थोड़ा प्रयास करें तो अपने इर्द-गिर्द रिश्तों, संबंधों या परिचय के फूल भी खिला सकते हैं. यकीन कीजिये, इसमें उम्र भी आड़े नहीं आती और कुछ खर्च भी नहीं होता. केवल हमें अपने आप को अपने चारों ओर के लोगों के लिए सुलभ या हाज़िर बनाना पड़ता है. उन्हें यह आभास देना होता है कि आप पूरी रूचि तथा जीवन्तता से लोगों से जुड़ने को उत्सुक हैं. इसका सबसे सुगम उपाय है- अपने को छोटे-मोटे हास-परिहास के लिए तैयार रखना. 
कई लोग अपनी छवि को एक अद्रश्य कम्यून में इस तरह बंद रखते हैं कि धीरे-धीरे स्वतः ही सब उनसे दूर होने लगते हैं. वे न तो किसी से मज़ाक करते हैं, और न ही किसी का किया मज़ाक सहते हैं. लोग उन्हें कठिन मानने लग जाते हैं. 
ज़्यादातर बड़ी उम्र में ही आपको साथ की आवश्यकता होती है. युवावस्था में तो काम भी ढेरों होते हैं और मित्र-मण्डली भी. एक दिन टीवी पर गाना आ रहा था- "गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा". पास ही बैठी बुजुर्ग बुआजी भी सुन रही थीं.वे एकाएक बोलीं- बेटा, मुझे एक बात समझ में नहीं आई, 'जब इसे गाँव प्यारा लगा तो ये मारा क्यों गया?' कमरे में बैठे सभी लोग हंस पड़े. इस पर सभी ने बुआजी को अपनी-अपनी तरह जवाब दिया. वे बेहद खुश हुईं. ऐसा कई दिन बाद हुआ था कि वे 'सेंटर ऑफ़ अट्रेक्शन' बनीं. सब उनसे हंसी-मज़ाक करते उन्हीं से बात जो  कर रहे थे.बुजुर्गों को यही तो चाहिए. यदि वे यह धारणा बना कर बैठ जातीं,कि फ़िल्मी गाने तो युवाओं का शगल है, इनसे हमारा क्या लेना-देना, तो बैठी रहतीं अकेले.
इसके बाद वे कई दिन तक बच्चों के निशाने पर रहीं. कभी कोई भी गाना आ रहा होता- बच्चे उनसे पूछते- बुआजी, ये गाना समझ में आ गया आपको? वे समझ जातीं कि सब ठिठोली कर रहे हैं, और इस से आनंदित हो जातीं. उनका मकसद पूरा हो गया, सबका ध्यान खींचने और सबसे दो बोल बोलने का.       

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...