Tuesday, October 11, 2011

फरिश्तो, उसे तुम कहाँ ले गए हो ?

तरन्नुम के जंगल में किसने बिछा दीं 
ये पीले धुंए की लकीरें आवारा 
ये शेरों में यूं आग किसने लगाई 
बहर,काफ़िये, मतले झुलसे पड़े हैं 
वो कल तक तो था, आज जाने कहाँ है? 
सभी सुन रहे थे वो  कल गा रहा था 
वो लहरों के जानिब मचल गा रहा था 
नशे में नहीं था, संभल गा रहा था 
वो हव्वा से आदम का छल गा रहा था 
वो झूठा कहाँ था, असल गा रहा था 
वो खेतों से उनकी फसल गा रहा था 
वो आँखों को करके तरल गा रहा था 
नहीं डगमगाती, अटल गा रहा था 
नहीं अपने घर में, निकल गा रहा था 
वो पेचीदगी से सरल गा रहा था 
वो बीती उमर के दो पल गा रहा था 
पिलाने को अमृत गरल गा रहा था 
वो झुग्गी की धुन में महल गा रहा था 
वो ग़ालिब की ताज़ा नसल गा रहा था 
वो बुझते दिए से भी 'जल' गा रहा था 
वो गहरे समंदर के तल गा रहा था 
वो दलदल में खिलते कमल गा रहा था 
वो प्यासों की बस्ती में 'नल' गा रहा था 
गिरती बरफ को वो 'गल' गा रहा था 
पीड़ा को कहकर  'पिघल' गा रहा था 
समस्या नहीं वो तो 'हल' गा रहा था
जो उड़ कर गया था सवेरे-सवेरे 
हुई शाम बोलो, वो पंछी कहाँ है 
फरिश्तो, उसे तुम कहाँ ले गए हो?
वो जगजीत कर के ग़ज़ल गा रहा था. 

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