Tuesday, October 4, 2011

झूठ...झूठ ...आप तो दूसरी किताब पढ़ रहे थे.

बोर्नविटा बच्चों ने एक दिन एक संत-फ़कीर को घेर लिया. उनसे कहानी सुनाने की जिद करने लगे. कोई चारा न देख संतजी कहानी सुनाने को तैयार हो गए. वे कुछ बोलते, इससे पहले ही एक बच्चे ने पूछा, आप कहानी कैसे सुनाते हैं?वे मुस्करा कर बोले- बेटा, हम तो किताबें पढ़ते रहते हैं, उन्ही में से कुछ सुना देते हैं. 
कहानी शुरू हुई- एक राजा था.एक दिन उसके कान में दर्द होने लगा. राज-वैद्य को बुलाया गया. वैद्य जी ने जांच-पड़ताल के बाद कहा- महाराज , आपके कान अपनी तारीफ सुनते-सुनते पक गए हैं,जब तक इनमें थोड़ा निंदा रस नहीं जायेगा, ये ठीक नहीं होंगे. 
राजा आग-बबूला हो गया. बोला- क्या बकते हो? भला किसकी हिम्मत है जो हमारी निंदा करे. हम अपनी बुराई सुनने से पहले अपने कानों को कटवाना पसंद करेंगे. ऐसे कान किस काम के, जो हमारी तारीफ न सुन सकें? 
जो आज्ञा, कह कर राज-वैद्य ने राजा के कान काट दिए.
अब राजा जब दरबार में आता तो उसे देखकर दरबारियों को हंसी आती. पर वे उसके गुस्से से डरते भी थे. बड़ी मुसीबत, कि दरबार में कैसे बैठें? आखिर महामंत्री ने रास्ता सुझाया. सभी से कहा कि वे रोज़ फूलों की माला लेकर आया करें. ढेर सारी मालाओं से राजा के कान ढक जाते, फिर किसी को हंसी नहीं आती. 
कुछ दिन बाद राजा की नाक में खुजली होने लगी. राज-वैद्य को तलब किया गया. वैद्य जी ने कहा-महाराज, फूलों की खुशबू से आपकी नाक पकने लगी है, इसमें काँटों का रस...राजा बोला- काट डाल इसे, दुष्ट वैद्य, हम फूलों के बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकते...
कहानी चल ही रही थी कि एक बच्चा चिल्लाने लगा- झूठ, झूठ, आपतो हमें  दूसरी कहानी सुना रहे हैं, आपतो कल "कांग्रेस का इतिहास" पढ़ रहे थे. 
   

2 comments:

  1. :) वेरी फ़नी!
    आपके व्यंग्य गज़ब के (मारक/प्रहारक) होते हैं।

    ReplyDelete

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...