Saturday, December 24, 2011

दो शब्द

दो शब्द कहने की परंपरा बहुत पुरानी है. मराठी भाषा में इन्हें चार शब्दों के रूप में कहा जाता है. मज़े की बात यह है कि "दो शब्द" के नाम पर अक्सर जो कुछ कहा जाता है, वह बहुत लम्बा-चौड़ा होता है. प्राय दो शब्द किसी 'मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि या विशिष्ट वक्ता' से कहलवाए जाते हैं, अतः उन्हें रोकने-टोकने की न तो कोई प्रथा होती है और न ही ज़रुरत. क्योंकि दो शब्द कहने सुनने वाले जानते हैं, कि जो कुछ कहा जायेगा, सुना जायेगा. सुना न भी जाये,  कम से कम सहा तो  जायेगा.
हाथ कंगन को आरसी क्या?
ये देखिये, मैं ही आपसे कितना और क्या-क्या कह गया. और ये कोई दो या चार शब्दों की बात नहीं है, बल्कि चार सौ बार की बात है.
अपनी इस ४०० वी पोस्ट में आपको क्रिसमस की बधाई दे रहा हूँ. और शुभकामनायें  दे रहा हूँ आने वाले नए साल २०१२ की.
साथ ही मैं अपने सभी मित्रों, शुभ-चिंतकों और पाठकों से यह भी निवेदन करना चाहता हूँ कि अब मैं नए वर्ष में ही पुनः हाज़िर हो सकूँगा. 

Thursday, December 22, 2011

पथिक तुम भूमि पर बैठो, निहारो दूर से महलों की शोभा,

वैसे तो दिल्ली पूरी ही आलीशान है,पर कुछ इमारतें तो यकीनन भव्य हैं. राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, लालकिला...ये फेहरिस्त आसानी से पूरी नहीं होगी.
एक समय था कि कर्नाटक के विधानसभा भवन को बंगलुरु के दर्शनीय स्थलों में अहम स्थान प्राप्त था. आज भी है.
जब महाराष्ट्र विधानसभा भवन बन कर तैयार हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इसका उदघाटन करते हुए कहा था कि इस आलीशान भवन में , भविष्य में न जाने कितने अहम फैसले लिए जायेंगे.
मध्य प्रदेश का विधानसभा भवन पहाड़ की चोटी  पर जब खड़ा हुआ तो लोग भूल गए कि इस राज्य को कभी पिछड़ा कहा जाता था.
राजस्थान के विधानसभा भवन ने रजवाड़ों की महलिया शान को जीवंत कर दिया.
लगभग हर प्रदेश में अरबों की लागत से विधायकों के लिए  तिलिस्मी इमारतों का निर्माण हुआ.
जनता ने इन्हीं को देख कर अरबों की गिनती सीखी.
लेकिन कहते हैं कि समंदर का सारा जल मिल कर भी कभी एक सीप की प्यास नहीं बुझा पाता.
देश के लिए एक कानून बनवाना है. लेकिन इनमें से कोई इमारत शायद काम न आये. देशवासियों को नीली छतरी तले आज़ाद मैदान में ही बैठना पड़े.  
     

Wednesday, December 21, 2011

हमारी और हमारे ग्रंथों की महानता याद दिला दी रशिया ने...'थैंक्स' रशिया के लिए

हम एक हो गए. हमें अहसास हो गया कि "गीता" वास्तव में महान ग्रन्थ है.यह मांग बिलकुल जायज़ है कि इसे "राष्ट्रीय ग्रन्थ" घोषित किया जाय.हमारे मस्तिष्कों की पुनश्चर्या हो गई कि हम अपने राष्ट्रीय चिन्हों की गरिमा के प्रति सचेत हों.
अब लगे हाथों हमें रशिया को यह भी बता देना चाहिए, कि हम गीता को किस कार्य में लेते हैं. हमारी अदालतों में गवाह के तौर पर आने वाले हर  शख्स को 'गीता' पर हाथ रख कर यह कसम खानी पड़ती है कि वह जो कुछ कहेगा, सच कहेगा. वह फिर क्या कहता है, यह हमारी चर्चा का विषय नहीं है.
हमारी अदालतों की गवाहियों में सत्य कितना प्रतिशत होता है, यह अलग से किसी शोधार्थी का विषय है.
फ़िलहाल हमारे पास एक नया मुद्दा तो आ ही गया है. हमारे पास वैसे भी मुद्दों का अकाल रहता है.
रशिया ने आज तो गीता पर टिप्पणी की है, कल वह हमारे गवाहों के बयानों पर टिप्पणी करेगा, परसों हो सकता है कि वह हमारी अदालतों में लंबित मुक़दमे भी गिनने लगे. धीरे-धीरे उसकी रूचि हमारे मामलों में बोलने की हुई तो वह हमारी और भी किताबें पढ़ने लगेगा.
वैसे भारतीय साहित्य का रुसी अनुवाद तो बहुत पहले से होने लगा था? गीता का नंबर अब आया है, या गीता पढ़ी अब गई है? बहरहाल, रशिया में पढ़ तो ली गई.         

Tuesday, December 20, 2011

बीज

बीज की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह वैसा ही फल फिर उगा सकता है, जैसे फल से वह बीज खुद निकला है.
रशिया ने 'गीता' पर प्रतिबन्ध लगा दिया. स्वाभाविक है कि भारत में बवाल मच रहा है.
रशिया ने प्रतिबन्ध क्यों लगाया, इस पर भारत के पास कहने के लिए कुछ विशेष नहीं है. यदि गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ भी मान लिया जाय, तब भी रशिया के संविधान में यह नहीं लिखा कि वहां सभी धार्मिक ग्रंथों का सम्मान किया जायेगा.किसी एक देश की आस्था जिस विचार में हो वह विचार  सब जगह सर्वमान्य नहीं माना जा सकता.
यदि तार्किकता के द्रष्टिकोण से देखें, तो पश्चिम सहित अन्यान्य देशों में 'रिज़ल्ट-ओरिएंटेड' समाज है. कर्म करो, और फल की चिंता मत करो, यह बात वहां किसी को समझाना आसान नहीं है.किसी एक विचार-द्रष्टि या लक्ष्य के लिए अपने-पराये सब को मार देने के आह्वान का भी अंध-समर्थन नहीं किया जा सकता.
गीता जिस घटना का प्रतिक्रियात्मक उत्पाद है, उस महाभारत में भी तो कोई महात्म्य नहीं छिपा. फिर भी कोहराम मच रहा है तो शायद इसलिए, कि गीता का बीज महाभारत से है. इसे 'कट्टरपंथी साहित्य' कहने का तो शायद कोई औचित्य नहीं है. बात केवल जन-भावनाओं के सम्मान की हो सकती है, लेकिन उसके लिए किसी को बाध्य तो नहीं किया जा सकता.     

Monday, December 19, 2011

मानव अधिकार "मानव" पर लागू हैं

आज एक विद्यार्थी ने मुझसे एक ऐसा सवाल पूछा, जिसका उत्तर उसे दे देने के बावजूद मैं अपने से संतुष्ट नहीं हूँ.
उसने मुझसे पूछा कि कुछ धन के लिए एक वृद्धा के पैर काट कर उसके चांदी के कड़े निकाल कर  उसे जान से मार देने वाला एक शख्स अब जेल में है, यहाँ उसकी सुख-सुविधा, आज़ादी, चिकित्सा सुविधा, खाने-पहनने की सुविधा तथा मनोरंजन को लेकर उसके मानव अधिकार क्या-क्या हैं?
प्रश्न अपने आप में मानवता के माथे का कलंक सरीखा है. वृद्धा अब परलोक में है, उसे इस धरती के किसी न्याय-अन्याय से अब कोई सरोकार नहीं है.वृद्धा का परिवार और उसके वंशज अब भी इसी दुनिया में हैं, उनके मानस पर जो न मिटने वाले ज़ख्म हैं, उनपर वही 'क्रूरता' थोड़ा बहुत मरहम लगा सकती है, जो कातिल को न्याय के मंदिर में दी जाएगी.
क्या ऐसे में पीड़ित के परिवार को "बदले की भावना मत रखो", "जो हुआ उसे भूल जाओ, भगवान की यही मर्जी थी", "क्षमाशील बनो", आदि-आदि कह कर हम अब जेल में उस अपराधी को 'पर्याप्त भोजन, दवाइयां, वस्त्र, मनोरंजन' आदि का हक़ देकर उसके 'मानव अधिकारों' के प्रति सचेष्ट हो जाएँ?
मैंने उस किशोर विद्यार्थी से कहा- उस अपराधी ने उस वृद्धा के साथ जो कुछ किया, वह उन क्षणों में किया, जब परिस्थिति-वश वह "कुछ देर के लिए मानव न रहा". उसके मस्तिष्क का एक क्रूर पशु के रूप में रूपांतरण हो गया. ऐसे में उसके पशुत्व को पुनः मानवता में बदला जाना कानून की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, ताकि भविष्य में और मनुष्य उसकी पशुता के शिकार न बनें . इस प्रक्रिया में उसके इन्सान के रूप में सारे अधिकार उसे दिए जाने चाहिए.साथ ही उसके द्वारा हानि पहुंचाए गए परिवार के कष्टों को मुआवजा, सहानुभूति,न्याय, नौकरी, अन्य-सुविधाएँ आदि देकर सामाजिक व राष्ट्रीय क्षमा उस परिवार से मांगी जाय.
क्या मैंने उस बच्चे से ठीक कह दिया?        

Sunday, December 18, 2011

क्या कुश्ती तीन पहलवानों के बीच भी हो सकती है?

एक साथ तीन पहलवानों के बीच मल्ल-युद्ध की आशंका अब कोई अनहोनी नहीं है. क्योंकि अब ऐसा हो रहा है. ये तीन पहलवान कौन-कौन हैं, आप जानते हैं?
ये पहलवान हैं- गुणवत्ता, संख्या और वर्चस्व.
 वैसे ये पहलवान तो दिखाई देने वाले नहीं हैं? फिर इनकी लड़ाई का आनंद कैसे आएगा?
लेकिन आनंद आ रहा है.
आनंद इसलिए आ रहा है, क्योंकि ये पहलवान दिखाई देने वाला चोला पहन के जंग कर रहे हैं. इनके दिखाई देने वाले नाम हैं- अमेरिका, हांगकांग और जापान.
और लड़ाई का मैदान है तकनीकी बाज़ार. फ़िलहाल ताज़ा स्कोर इस प्रकार हैं- नंबर तीन पर चल रहा है जापान, नंबर दो पर अमेरिका है और पहले नंबर पर हांगकांग को 'माना' जा रहा है.माना जा रहा है, इसलिए कहा गया है, क्योंकि फ़िलहाल विजेता अंकों के आधार पर ही बढ़त पर है, उसने 'रनर्स-अप' को चित्त नहीं किया है.
अब बाज़ार में आप 'अंकों' को कितने अंक देते हैं, ये आप पर निर्भर है.
ये ठीक है कि जो जीता वही सिकंदर,लेकिन जो जीतता दिखे उसे अभी सिकंदर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मामला अभी "अंकों" पर ही है. किसी सांख्यिकी-विद से पूछिए, अंक तो कुछ भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं.भारत में तो ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं. यहाँ तो महंगाई "घट" रही है.संपदा बढ़ रही है, लोग गरीब हो रहे हैं.
अब एक सवाल आपके लिए- क्या आप बता सकते हैं कि गुणवत्ता, संख्या और वर्चस्व में से कौन, किस खिलाड़ी के चोले में है? उदाहरण के लिए- दर्शक के चोले में तो भारत है.  

Saturday, December 17, 2011

सूडान और उत्तर प्रदेश की प्रसव पीड़ा का साल

जब २०११ शुरू हुआ था तो अफ्रीका के सबसे बड़े देश सूडान ने सबका ध्यान खींचा था. इस बात पर जनता की रायशुमारी की जा रही थी कि क्या सूडान से दक्षिणी सूडान को अलग करके, एक अलग देश का दर्ज़ा दे दिया जाय.चाहे जन्म न हो, पर ऐसी ही प्रसवपीड़ा भारत का उत्तर प्रदेश राज्य भी झेल रहा है.
उत्तर प्रदेश में तो शीघ्र ही चुनाव भी होने वाले हैं. इन चुनावों में सबसे ज्यादा खींच-तान चार दलों के बीच ही है. सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस.चारों का उत्साह और दम-ख़म देख कर ऐसा लग रहा है कि कहीं चारों ही प्रदेश के चार टुकड़े करके, एक-एक टुकड़ा न ले उड़ें.वैसे यह स्थिति काल्पनिक ही है, पर यदि ऐसा हो जाये तो ये चार राज्य चार देशों जैसे ही हो जायेंगे.
कोई खिलौना अपनी इच्छा से तो टूटना नहीं चाहता. खेलने वाले बच्चे ही उसे तोड़ देते हैं.
इन चुनावों में मुद्दे भी चार ही हैं- विदेशों में जमा काला धन,नोट से वोट, गाँव-गाँव की पद-यात्रायें और भ्रष्टाचार.
संसद ने चार दिन में कुछ नहीं किया तो जैसे क्रिसमस में सांताक्लॉज़ घर-घर  पहुंचेंगे वैसे ही चुनावों में  अन्ना हजारे भी.यह डर सभी को साल रहा है-
          खादी  लपेट-लपेट के  घूमत, वोटन के लिए  नेता  बेचारे
          रोटी भी छोड़ के, बोटी भी छोड़ के, पैदल डोल रहे मारे-मारे
          लूट  के  ढेर के ढेर यहाँ से, धरे  परदेस  में  नोट  करारे
          भ्रष्टाचार की  तान  उठाके, ये  आये  कहाँ  से  अन्ना हजारे?     

Friday, December 16, 2011

रशिया यात्रा में मंत्र देने या मंत्र लेने की संभावनाएं

जब दो बड़े नेता मिलते हैं तो दुनिया उत्सुकता से देखती है. लोगों में यह सामान्य जिज्ञासा होती है कि क्या बातें कीं. ऐसे देशों के कान पहले खड़े होते हैं जो दोनों से सम्बन्ध रखते हैं. जो दोनों से, या किसी एक से भी दुश्मनी रखते हैं, उनकी तो नींद थोड़ी देर के लिए उड़ ही जाती है.
पर मास्को में मनमोहन को देख कर ऐसा कहीं कुछ नहीं होगा.
फिलहाल पुतिन की भी स्टार इमेज नहीं है. अलबत्ता दोनों में एक समानता ज़रूर है कि दोनों से ही उनके देश की जनता अघाई हुई है. एक जगह समस्या यह है कि ये सब क्या हो रहा है, तो दूसरी जगह परेशानी यह है कि कुछ होता क्यों नहीं?
रशिया की स्थिति अभी यह है कि एक रास्ता छोड़ तो दिया गया है, पर दूसरा अभी पकड़ा नहीं गया. बल्कि कुछ लोग तो इस बात के भी पक्षधर हैं, कि देश अपनी पुरानी सोच पर ही लौटे.खैर, वह एक सम्पन्न और समर्थ देश है, कुछ देर रुक कर सोचने से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.
यदि हम बात भारत की करें, तो कहा जा सकता है कि हमारी जन्मकुंडली के ग्रह हमारी चाल भी तय करते हैं, और हमारा गंतव्य भी. हाँ, हमारी जन्मकुंडली हम खुद तय करते हैं. उसकी भी एक निश्चित मियाद है. उसमें अभी समय शेष है.
रशिया से कुछ माल हमारे प्रधानमंत्री बंद गठरी में ला सकते  हैं तो कुछ खुले-आम भी. बस देखना यह है कि उड़ती चिड़िया के पर गिनना चीन को आता है या नहीं.  

Thursday, December 15, 2011

सेवक महान या पालक

हम १९४७ से पहले सेवक थे. १९४७ में आम आदमी को राजा और शासकों को लोक-सेवक कहने वाला लोकतंत्र आया. धीरे-धीरे लोक-सेवकों की 'सेवा' से देश त्रस्त होने लगा.आखिर सेवक शब्द से हमारा मोह-भंग हो गया. हमें लगने लगा कि यह शब्द हमारा कुछ नहीं बना सकता, हमें कुछ नया चाहिए.
कुछ समय बाद हमें नया शब्द 'पाल' मिल गया. यह काफी निरापद था. इस से किसी का कुछ बिगड़ने की कोई आशंका नहीं थी. यह शब्द गौमाता जैसा सीधा-सादा था.राज्यपाल से कहीं, कभी, किसी को कोई खतरा नहीं हुआ, यह सेवा-निवृत्ति के बाद भी सम्मान-स्वरुप  सरकारी वेतन पाने वाला पद था. द्वारपाल तो बेचारा दरवाज़े के बाहर ही रहता है, वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है.
कुछ गहराई से अन्वेषण करने वालों ने पाया कि यदि लोक-सेवक का लोक, और राज्यपाल का पाल लेकर एक नया 'गाइड' पहरे पर बैठाया जाय तो शायद कोई बात बने.
लेकिन तभी सरकार को महसूस हुआ कि सबको 'बनाने' का कार्य तो सरकार का है, कोई और किसी को कैसे बना सकता है? बस, सरकार ने आव देखा न ताव, यह ठान लिया कि चाहे कुछ हो जाय, लोकपाल जैसा कुछ नहीं बनाना. बनाना भी पड़ा, तो ऐसा ढीला-ढाला, कि वह भी सबका मौसेरा भाई ही हो.
कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि ग्वाला भैंस के आगे बीन बजाने में इतना तल्लीन हो जाता है, कि चोर कब भैंस खोल ले गए, यह उसे पता ही नहीं चल पाता.
कहीं ऐसा न हो कि सरकार अन्ना के चारों ओर चक्कर काटने में ही रमी रहे और उधर 'विकीलीक्स' सरकार के अंकल-लोगों की पासबुक जनता को दिखाने लग जाये? ये वाली नहीं, "वो" वाली.        

Wednesday, December 14, 2011

काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सौं छीन के लै गयौ रोटी

हमारे यहाँ काले रंग और काली करतूतों को अच्छा नहीं माना जाता.इसीलिए काग यानी कौवे को भी कोई बड़े आदर से नहीं देखा जाता. लेकिन दूसरी तरफ आज के ज़माने में काली करतूतें ज़रूरी सी हो गई हैं. यदि कोई नेता काली करतूतें न करे तो प्रेस उस पर तवज्जो देती ही नहीं. और यदि किसी नेता पर प्रेस तवज्जो न दे, तो उसका क्या हश्र होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है. नेता का जन्म ही प्रेस के तवज्जो देने से होता है. एक आम आदमी पर भी प्रेस तवज्जो देने लगे तो उसे नेता बनते देर नहीं लगती.
अन्ना हजारे ने अन्न-त्याग का रास्ता जब से दिखाया है हमारा युवा वर्ग गाँधी के इस हथियार को प्रत्यक्ष रूप से जानने लगा है. देश भर में जगह-जगह लोग रोटी छोड़ने को तैयार हैं. अन्ना की बात न सुनी गई तो देश में सृष्टि  के इस प्रथम नियम 'भोजन' की महिमा पर ज़रूर आंच आ कर रहेगी.
लोगों की इस रोटी पर अब भ्रष्टाचार  रुपी काग की नज़र है.देखना  यह है कि इस कौवे का पेट कितना बड़ा है.सिर्फ पेट ही नहीं इसकी चोंच  का दम भी तो देखना है, क्योंकि इसे रोटी जिससे छीनने की धुन सवार हुई है, वो कोई एक-दो-तीन लोगों की जमात नहीं, बल्कि देश भर की आम जनता है.     

Monday, December 12, 2011

अभी तो थानेदार के लिए हल्ला है, चोरों को कब ढूढेंगे?

 ये जो सड़कों पे शोर है, ये तो "थानेदार" को लाने का है. थानेदार लाओ...थानेदार लाओ... अच्छा और मज़बूत थानेदार लाओ...ईमानदार थानेदार लाओ... सरकारी नहीं, सरोकारी थानेदार लाओ.
पहले तो थानेदार आएगा, फिर कानून बनाएगा, घुड़की देगा, ललकारेगा, और तब कहीं जाकर चोरों पर बुरी नज़र डालेगा. और उसके बाद जाकर चोर पकड़ में आयेंगे.
लेकिन तब तक? तब तक तो काफी देर हो चुकी होगी. चोरों के पेट में माल पच चुका होगा.हीरे-जवाहरात  को चोर  तितर-बितर कर चुके होंगे. नोटों को विदेशी बैंकों में पहुंचा चुके होंगे.
खैर, अभी न सही, कभी न कभी तो थानेदार की भर्ती होगी?
लेकिन दुःख इस बात का है कि थानेदार की भर्ती इतनी आसानी से नहीं होगी. उसके लिए चौहत्तर  साल के अन्ना हजारे को लाखों निर्दोष- बेगुनाहों को लेकर जेलें भरनी होंगी.
इस देश में कंस-वध की भूमिका जेल भरने से ही क्यों शुरू होती है?
रावण को  मारने के लिए अशोकवाटिका में सीता को  ही क्यों कैद में जाना पड़ता  है?
क्या सही कानून बनाने के लिए किसी बोधि-वृक्ष के नीचे बैठे सिद्धार्थ को ज्ञान नहीं हो सकता?    

Saturday, December 10, 2011

इंसान में क्या घट जाता है, क्या बढ़ जाता है, यह मापना कठिन है

कल एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला, जहाँ 'मानव अधिकार दिवस' से सम्बंधित कार्यक्रम का श्रीगणेश राज्य के मुख्यमंत्री कर रहे थे.
वहीँ मेरे एक मित्र से भी मिलना हुआ जो पहले कभी राज्य के पुलिस महानिरीक्षक रह चुके हैं, और अब मानव अधिकार आयोग के सदस्य हैं.हमने काफी देर तक मानव अधिकार पर चर्चा की.
वहीँ मेरे एक और मित्र ने मुझसे कहा कि मैं अपने उन  मित्र को, जो मानव अधिकार आयोग के सदस्य हैं,  उनके एक कार्यक्रम में आने के लिए कहूँ जो शीध्र ही आयोजित होने जा रहा है.
मैंने उन दोनों का परिचय करवा कर उनकी ओर से निवेदन कर दिया.
कार्यक्रम के आयोजक मित्र ने उनसे पूछा कि उन्हें लेने के लिए कार कब और कहाँ भेजी जाय? मुख्य अतिथि के तौर पर उन्हें बुलाया जा रहा था. उन्होंने विनम्रता से कहा- उन्हें लेने के लिए कार भेजने की कोई ज़रुरत नहीं है, केवल किसी एक आदमी को भेज दिया जाय जो उन्हें समारोह-स्थल तक का रास्ता बता दे.
उनका वार्तालाप चल रहा था, और मैं सोच रहा था कि जब वे राज्य के पुलिस महानिरीक्षक थे, तब उनके आने पर क्षेत्र के आई.जी., एस.पी. और अन्य अधिकारियों की गाड़ियों का काफिला तो साथ चलता ही था, ढेरों पुलिस कर्मियों की फौज भी उपलब्ध होती थी.
  

मीडिया, चिकित्सा, शिक्षा क्या केवल बिजनस हो सकते हैं.

हाँ.
कैसे?
जैसे हो गए.
पत्रकारिता, शिक्षा या चिकित्सा जैसी सेवाओं या सुविधाओं के बारे में हम लगातार यह कहते रहे हैं कि यह क्षेत्र व्यापार के दायरे में नहीं आते.इन क्षेत्रों में नैतिकता जुड़ी है और नैतिकता का व्यापार नहीं होता. लेकिन हम कुछ भी कहते रहें, ये तो धड़ल्ले से व्यापार की श्रेणी में आ गए.
पत्रकारिता का  अभीष्ट है कि समाज का अहित रोकने के लिए जोखिम उठाये जाएँ.लेकिन अब समाज-कंटकों के हित में निर्दोषों को ज़ख्म दिए जा रहे हैं, और मीडिया में ऐसी कारगुजारी की ख़बरें मनचाहे ढंग से छपवाई जा रही हैं. मीडिया मैनेज करने की घटनाएँ मीडिया को ठेंगा दिखाने से लेकर अब मीडिया की सौदेबाज़ी तक आ पहुंची हैं.एक नया सीन आजकल और देखा जा सकता है. बड़े से बड़ा अखबार दूसरों की भर्त्सना जिस बात के लिए आराम से करता है, वही खुद करता हुआ खुले-आम पाया जा रहा है. यानी वही, कि जो करना है, करो और दूसरों को उपदेश भी झाड़ते रहो.
शिक्षा यानी- किसी को कुछ सिखाने की नैतिकता नहीं, बल्कि जितने पैसे उतनी बड़ी डिग्री.
और चिकित्सा. वह प्रणाली जिस से मरीज़ की जेब स्कैन करके कतरा-कतरा ख़ाली की जाय.रोग भगाने की कोई गारंटी नहीं.
कोई है?
ज़रा बताना, इस बात को पॉजिटिव टोन में कैसे लिखें?        

Friday, December 9, 2011

मानव अधिकार? मानव कर्तव्य कहाँ हैं?

कल  मानव अधिकार दिवस है.मानव अपने अधिकार मांगने का जश्न मनायेगा.
लेकिन सबसे बड़ी बाधा यह है कि मानव को अपने अधिकार "मानव" से ही मांगने हैं.
दरअसल मानव को डिज़ाइन करते समय ब्रह्माजी से एक भूल हो गई. उन्होंने सबको सब अंगों में बराबर बना कर केवल 'दिमाग' में अलग-अलग कर दिया. दो आँखें, दो कान, एक नाक, दो पैर, दो हाथ, एक गर्दन, एक मुंह, एक सर तो दे दिया पर खोपड़ी के भीतरी नक़्शे में 'एक सड़क सत्तावन गलियां' [कमलेश्वर का उपन्यास है] बनादी.अब हर  इन्सान अपनी-अपनी चाल चलता है.बात यहाँ तक पहुँच गई कि मानव को मानव से अपना अधिकार मांगने की नौबत आ गई.
मानव ही घास, मानव ही घोड़ा, मानव ही चिड़िया, मानव ही बाज़... इसलिए और कोई चारा नहीं है- मानव अधिकार दिवस मुबारक.    

Thursday, December 8, 2011

लतीफा,साहित्य और सिब्बल...आप सिविलियन हैं या सिब्बलियन ?

एक बड़ा पुराना लतीफा है, लेकिन अभी उस के दिन लदे नहीं हैं-सुन लीजिये .एक आदमी ने बैठे-बैठे सोचा कि लोग बारह बजते ही मेरा मजाक उड़ाने लगते हैं,क्या ही अच्छा हो कि मैं आज बारह बजने ही न दूं.
आदमी ने कमर कसी, और शहर के घंटाघर पर चढ़ कर घड़ी के कांटे पर लटक गया.
यह तो पता नहीं, कि उस दिन शहर में बारह बजे या नहीं, लेकिन आदमी के हौसले की सबने खूब तारीफ की.
हिंदी में कहावतों का भंडार है- जितने मुंह उतनी बात, किस-किस का मुंह पकड़ा जाय,लेकिन जिस तरह हिंदी में कहावतें बहुत हैं, उसी तरह हिंद में हौसले वाले भी बहुत हैं. ज़माने भर का मुंह पकड़ना तो इनके बाएं हाथ का खेल है.
कपिल सिब्बल चाहते हैं कि दुनिया सख्त अनुशासन में रहे. दुनिया के सात अरब लोग, उन्हें जो कुछ बोलना हो, पहले सिब्बल जी के कान में बोलें,और जब सिब्बल जी  उनके वचनों को पास कर दें, तब वे किसी और से बोलें.
भला बताइए, ध्वनि -प्रदूषण का उन  से बड़ा दुश्मन कोई और होगा? सोचिये, कितना मज़ा आएगा- चारों ओर मीठे ही मीठे वचन होंगे.
तो यह नया  सिद्धांत आपको कैसा लगा?
आप क्या बनना चाहेंगे? सिविलियन या सिब्बलियन?  
   

Wednesday, December 7, 2011

कपिल सिब्बल, गिरिजा व्यास, प्रणब मुखर्जी और अन्ना हजारे

क्या आपको इन नामों में कोई समानता नज़र आ रही है?
नहीं आ रही?
चलिए, एक 'क्लू' के बाद शायद आप बता पायें. क्लू यह है कि समानता केवल आज-आज है, कल का कोई भरोसा नहीं, हो सकता है कि कल ये सब फिर आपको अलग-अलग दिखाई दें.
समानता यह है कि ये सभी आज के न्यूज़ मेकर हैं.
आपको लगेगा, कि यह कौन सी खास बात है? ये बड़े-बड़े लोग हैं, न्यूज़ तो रोज़ ही बनाते हैं.
लेकिन खास बात यह है, कि इन सभी ने आज जो समाचार बनाया है, वह महात्मा गाँधी, भगवान महावीर, गौतम बुद्ध या मदर  टेरेसा की शैली में, बेहद शांति, अहिंसा, त्याग, सहिष्णुता और समर्पण सहित बनाया है. आइये, अब इनके 'बनाये'समाचारों को देखें-
बेहद सादगी और सत्यता से अन्ना हजारे ने स्वीकार किया है कि शरद पवार के "एक ही", उनके दिल की आवाज़ थी. बाद में जो कुछ उन्होंने कहा, वह दुनियादारी और शिष्टाचार का तकाजा था.
गिरिजा व्यास आज ख़बरों में हैं तो इसलिए कि उठाईगीरे केवल भारत में नहीं हैं, बल्कि विश्व के संपन्न और विकसित देशों में भी हैं, कुल मिला कर छीना-झपटी एक "मानव अधिकार" है, गिरिजा जी ने यह बात विश्व मानव अधिकार दिवस के चंद दिनों पहले सिद्ध की, वे जर्मनी के बर्लिन गईं थीं.
हिंदी में 'उगल कर निगल लेना' कोई पॉपुलर मुहावरा नहीं हैं, लेकिन यदि पॉपुलर मुहावरे में बात की जाएगी तो प्रणव दा के साथ-साथ सरकार और संसद की भी किरकिरी होगी, लिहाज़ा आज के न्यूज़-मेकर प्रणव मुखर्जी को सुषमा स्वराज की बधाई.
अब बचे कपिल सिब्बल.आज एक बड़ी खबर उनके नाम से भी है.
एक बार एक आदमी बीच चौराहे पर बैठा, एक के बाद एक शीशे फोड़ रहा था.एक लड़के से रहा नहीं गया, पूछ बैठा- बाबा, इस तरह कांच क्यों फोड़ रहे हो? बाबा बोला- बेटा, इन सभी कांचों में मेरा मुंह काला दिखाई दे रहा है.
लड़का बोला- तो जाकर अपना मुंह धो आओ, कांच क्यों फोड़ते हो? बाबा आश्चर्य से  बोला, बच्चा समझदार है.
ऐसा कोई बच्चा सिब्बल जी को भी मिल जाता तो "सोशल साइट्स" पर लगाम कसने की ज़रुरत नहीं पड़ती.  
   

Tuesday, December 6, 2011

शहरों में रहने वाले

दुनिया में शहरी आबादी भी अच्छी-खासी तादाद में हैं. यदि विश्व के चंद बड़े शहरों को देखें तो वे एक-एक देश के बराबर जनसँख्या को समेटे हुए हैं.
भारत कहने को गाँवों का देश है, लेकिन संसार के १२ बड़े शहरों में भारत के तीन शहरों का शुमार है. मुंबई विश्व में आठवां  सबसे बड़ा शहर है.
शहरी आबादी और ग्रामीण आबादी की किस्म, स्तर, खूबियों और खामियों में बहुत अंतर होता है. जबकि एक मज़ेदार तथ्य यह है कि शहरी आबादी कहीं आसमान से नहीं उतरती. छोटे-छोटे ग्राम्य अंचल ही धीरे-धीरे पनप कर कालांतर में शहर बनते हैं.किसी बहुत बड़े शहर को देखिये, तो उसके जिस्म में कई ग्रामीण टापू मिलेंगे, जिन्हें निगलते हुए शहर आगे बढ़ते हैं. यही पिछड़े और सीधे-सादे गाँव जब किसी फैलते शहर की सीमा में आ जाते हैं, तो इनकी चाल शहरी हो जाती है. लेकिन चंद सालों बाद इस शहर के वाशिंदों में नई चमक और ठसक व्याप जाती है.फिर वहां का कोई रहवासी ग्रामीण नहीं रहता.
जापान का टोकियो हो, अमेरिका का न्यूयॉर्क, ब्राज़ील का साओ-पाउलो हो,या साउथ कोरिया का सियोल,इन शहरों की किसी गली में ग्रामीण हवा नहीं बहती.
चाइना के शेनझेन, यूनाइटेड  किंगडम के लन्दन,अमेरिका के शिकागो, या टर्की के इस्तम्बूल में ऐसा कुछ नहीं है जिसे गैर-शहरी कहा जा सके.
जापान के ओसाका-कोबे-क्योटो, नागोया, सब खालिस शहरी हैं. फिलिप्पीन्स का मनीला, इंडोनेशिया का ज़कार्ता ,नाइजीरिया  का लागोस, मिस्र का कैरो चमचमाती शहरी सभ्यता के ही प्रतीक हैं.लॉस एंजेलस, पेरिस,मोस्को, ब्यूनोस आयरस की तो बात ही क्या?
जिसमें टोकियो नगरिया में तो साढ़े तीन करोड़ लोग बसते हैं.           

Monday, December 5, 2011

इतना खाया कि अब जोर से भूख लगी है - यानी बात शिक्षा की

यह हमारे देश का बरसों पुराना शिष्टाचार है कि कोई घर आये तो बाहर आकर हम उसकी अगवानी करते हैं और उसके जाते समय उसे देहरी तक छोड़ने उसके साथ आते हैं.इस शिष्टाचार को सब जानते-समझते हैं, चाहे  पढ़े-लिखे हों या अनपढ़.शिक्षित लोग तो 'वेलकम' और  'सी-ऑफ' करने की प्रथा का  और भी जोर-शोर से पालन करते हैं.
इस नियम का अपवाद केवल तब होता है जब घर में किसी की मौत हो जाये, और आने वाले शोक प्रकट करने आ रहे हों. ऐसे में न तो किसी की अगवानी करते हैं, और न ही उसे छोड़ने बाहर तक साथ आते हैं.
पिछले कुछ सालों से हम सबको शिक्षा, व्यावहारिक शिक्षा और शिक्षा में नवाचार की बातें भी खूब बढ़-चढ़ कर करते रहें हैं.
यह भी एक सामान्य सी बात है कि घर आये मेहमान को आदर से आसन देकर बैठाया जाता है. चाहे आनेवाला अकस्मात भी आ गया हो, उसकी यथाशक्ति आवभगत करने की चेष्टा की जाती है, उसे चाय-पानी पूछा जाता है. गरीब से गरीब व्यक्ति भी इसमें कोताही नहीं करता.
हाँ, यदि आने वाला इस योग्य न पाया जाय तो इन बातों की अनदेखी भी की जाती है.अपना स्तर आंकने का यह एक जरिया भी माना जाता है कि हम कहीं गए तो हमारी आवभगत किस तरह हुई?
          हमारी सरकार ने सभी सरकारी अधिकारियों को एक पत्र भेजने का फैसला किया है कि यदि किसी भी विभाग में कोई "सांसद" महोदय तशरीफ़ लायें तो उनका सम्मान किया जाय, उनकी बात सुनी जाय, उनकी अगवानी की जाय, उन्हें छोड़ने बाहर तक आया जाय,उन्हें गंभीरता से लिया जाय.
सरकार में अधिकारी बनने के लिए उच्च-शिक्षित होना ज़रूरी है. "सांसद" बनने के लिए जनता में लोकप्रिय होना ज़रूरी है.तो फिर सरकार के इस पत्र का क्या अर्थ निकाला जाय?     

Sunday, December 4, 2011

हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे रहें?

यह बात बिलकुल सच है कि यदि शब्दों के पीछे सिद्धांत का सहारा न हो तो वे खोखले रह जाते हैं. इस समय भारत दो शब्दों से जम कर खेल रहा है- एफ़.डी.आई. और लोकपाल.
एफ़.डी.आई. सरकार का तोता है, जिसे विपक्ष उड़ाना चाहता है.बहुत दिनों के बाद सरकार कोई ऐसा मिट्ठू लाई है जो सचमुच हराभरा है. महंगाई का जो अजगर सालों से पसरा पड़ा है, इस मिट्ठू की चोंच से उसके बदन पर थोड़ी खलिश ज़रूर होगी. प्रधानमंत्री जैसे भी सही, आखिर अर्थशास्त्री तो हैं ही, शायद खलिश को जुम्बिश में बदल सकें?जुम्बिश हलचल में बदलेगी, और हलचल हुई तो अजगर कुछ तो सरकेगा भी.सरका, तो थोड़ी राहत भी तय है.
यही राहत समय आने पर कहीं 'वोटों' में न बदल जाय? विपक्ष का यह डर भी वाजिब है. लिहाज़ा इस लफ्ज़ की गेंद पर दोनों ओर से थोड़ी शॉट्स और लगने का अंदेशा है.
दूसरा शब्द है- लोकपाल. लगभग वैसी ही स्थिति है. भ्रष्टाचार का अजगर यहाँ भी लेटा पड़ा है.लोकपाल नाम की छड़ी इसे कौंच सकती है. अन्ना की मुहिम छड़ी को तेल पिलाने की है, ताकि वार सनसनाते हुए हों.सरकार की दिलचस्पी इस छड़ी को मुलायम करने की है, ताकि वार जानलेवा न हो जाएँ.
समझ में नहीं आता कि अजगर में सरकार के किस "अपने" की आत्मा बसी है?
सवाल यह भी है कि सरकार देश का भला 'फिफ्टी-फिफ्टी' क्यों चाहती है?
हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे हैं? हमें संसार प्यारा है, देश प्यारा है , सरकार प्यारी है  या पार्टी प्यारी है ?जनता प्यारी है, या फिर जनता का "वो...ट" प्यारा है?     

Saturday, December 3, 2011

वो सौ साल पहले भी था, आज भी है, और कल भी रहेगा.

किसका रस्ता देखे, ऐ दिल ऐ सौदाई?
मीलों है ख़ामोशी, मीलों है तन्हाई... लेकिन यह ख़ामोशी ज्यादा देर रहने वाली नहीं है. वे कहीं न कहीं से निकल कर सामने आ ही जायेंगे. क्योंकि हार के रुक जाना उन्होंने सीखा ही नहीं था.
अभी दर्शकों का दिल भरा भी नहीं था, कि वे चले गए छोड़ कर.
बात देवानंद की हो रही है. जिस शख्स का चेहरा देखकर कभी ये लगता था कि यह बूढ़ा भी कैसे होगा, वह दुनिया से कूच भी कर गया.
देवानंद एकदम खरे आदमी थे. वे युवा चेहरे और रंगीन लिबास में कितने बड़े संन्यासी थे इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है, कि जहाँ उनके समकक्ष और बाद वाले लोग अपनी-अपनी विरासत अपने बेटे-बेटियों को सौंपने के लिए तन-मन-धन से जुटे रहे, वे अपने बेटे सुनील  को यह कहकर दूर से देखते रहे कि अगर उसके क़दमों में ताकत होगी तो अपना रस्ता वह खुद बनाएगा.
दुनियाभर का यह "गाइड" अपने बेटे का गाइड नहीं बना.
जब मजहरखान दुनिया से गए थे, तब जीनत अमान ने जो खालीपन झेला होगा, शायद उस से भी बड़ा खालीपन एक छितराए बादल की तरह उन पर आज भी  छा गया होगा. देव की याद में यही कहा जा सकता है- 'हरे राम हरे कृष्ण.  

इस नाव में मत बैठिएगा कभी भूल कर भी

'पल' कहिये या 'क्षण', यह बड़ी बेकार चीज़ है. ये आपके कोई काम नहीं आती.'लम्हा' दिखने में तो छोटा सा ही है, पर है बड़ा काइयां, बर्बाद कर देता है. ये आपको एक पल में वर्तमान से काट देता है. क्षण भर में सब विगत बन जाता है. अभी-अभी आप कुछ गुनगुना रहे थे, कि लीजिये, पलक झपकते ही आपका गीत अतीत बन गया. ये सब इसी पल की बदौलत तो हुआ.
और अचरज की बात तो ये है कि यह आपको कहीं नहीं पहुंचाता.आपको वर्तमान से काट भी लाया, और आप 'भविष्य' में भी नहीं पहुंचे. कभी आपका कोई पल भविष्य का भी हुआ है? नहीं न? तो फिर आखिर किस काम का हुआ ये पल, क्षण या लम्हा?
आप वर्तमान को पीछे छोड़ आये, और भविष्य में भी नहीं पहुंचे. तो बताइए आप कहाँ हैं?
बिलकुल ठीक. "संसद" में. 

Friday, December 2, 2011

खेत में से चिड़िया इस लिए उड़ाई जा रही है कि फिर फसल हम चट करें

भारत के गांवों  और शहरों में कई प्रथाएं पूरी तरह सड़ी-गली होने के बावजूद भी केवल इसलिए ढोई जा रही हैं, क्योंकि इन्हें बनाये रखने के पीछे चंद सौदागरों का हाथ है.आजभी कई गाँवों में मृत्युभोज बड़े पैमाने पर आयोजित हो रहे हैं. यदि कोई समझदार व्यक्ति इसे टालने की सोचता भी है तो उसे गाँव के वे व्यापारी यह कह कर रोकते हैं कि सारे गाँव को खिलाने की ये रीत मत छोड़ो, यदि तुम्हारे पास नहीं है तो उधार हम देंगे.दहेज़ सारे समाज का नासूर होने पर भी लिया और दिया जा रहा है.शादियों के मौसम में यह व्यापारियों की दुधारू गाय है.
किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी मिट्टी चाहे क्षण-भर में पञ्चतत्व में विलीन हो जाये, व्यापारी उसका उठावना, तिया, पांचा, दसवां, बारवां, तेरहवां, मासी, छटमासी, बरसी और पुण्यतिथि मना कर ही छोड़ते हैं, और सब क्रियाओं में दनादन माल बेच कर ही मानते हैं.देशभर के छोटे बड़े मंदिरों की पद-यात्रायें इन्हीं व्यापारियों की बदौलत सम्पन्न होती हैं.
इन्हीं व्यापारियों को शायद खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश पर एतराज है.यदि वे ऐसा सोचते भी हैं, तो यह गलत नहीं है. सभी को अपना हित सोचने का अधिकार है.
लेकिन इस से जितना उनका नुक्सान वे सोच रहे हैं, उतना होगा नहीं.         

Thursday, December 1, 2011

क्या सचमुच हम वसुधा को एक कुटुंब ही मानते हैं?

हम इन ख़बरों पर खुश होकर गर्व से भर जाते हैं कि किसी भारतवंशी को अमेरिका की सरकार में सम्मानपूर्ण जगह मिली, हमारे देश के लाखों युवा अच्छी पढ़ाई और ऊंची नौकरियों के लिए विदेशों में जाकर सफल हुए. यह बात तो हमारी आत्मा तक को गदगद कर देती है कि बाहर का पैसा प्रचुर मात्रा  में यहाँ आकर हमारा जीवन-स्तर सुधार रहा है.इस तथ्य को लेकर तो हम ग्लोबलाईज़ेशन को अपनाने की ओर तेज़ी से बढ़ने लगे हैं. यह सब वास्तव में ख़ुशी और संतोष की ही बात है.
फिर अचानक क्या हुआ? आज हम किस बात पर "भारत-बंद" पर आमादा हो गए? यदि खुदरा व्यापार में विदेशी धन आया तो हम बर्बाद कैसे हो जायेंगे?
जब विदेशी पर्यटक आते हैं, तो हमें ज़बरदस्त आय देकर जाते हैं, बल्कि तरह-तरह से हम उन्हें लुभाते हैं.
जब विदेशी ज्ञान आता है तो हम मानसिक रूप से और सशक्त हो जाते हैं, बल्कि हम विदेशी ज्ञान की तलाश में दूर-दूर जाते हैं.
जब विदेशी बैंक आते हैं तो हम मालामाल हो जाते हैं, बल्कि हमारे अपने बैंकों की दशा भी स्पर्धा से सुधर जाती है.
जब विदेशी कपड़े आते हैं तो हमारी युवा पीढ़ी उन्हें दिल से गले लगाती है, बल्कि पुरानी पीढ़ी भी 'मॉडर्न' होने का सपना देखने लगती है.
जब विदेशी मशीनें आती हैं तो हमारी क्षमता और गुणवत्ता कई गुना बढ़ जाती है, बल्कि हम उनकी बनावट की नक़ल करके अपना उत्पादन बढ़ाने  लग जाते हैं.
जब विदेशी तकनीक आती है तो हमारा कायाकल्प हो जाता है, बल्कि उसके सहारे हम अपना पिछड़ा-पन मिटाने की राह पा जाते हैं.
जब विदेशी माल आती है तो हम उसमें शॉपिंग करने का लुत्फ़ उठाते हैं, बल्कि खरीदारी का वैश्विक तरीका सीख जाते हैं.
फिर केवल खुदरा व्यापार में विदेशी धन आने से हमारा क्या बुरा हो जायेगा?
कहीं ऐसा तो नहीं, कि हम अपने सौदागरी के  बरसों पुराने, काइयां  और सड़े-गले तौर-तरीके अपनाने वाले दकियानूसी 'श्रेष्ठि' वर्ग के पक्ष में खड़े होने को फुसलाये जा रहे हों?    

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...