Sunday, December 4, 2011

हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे रहें?

यह बात बिलकुल सच है कि यदि शब्दों के पीछे सिद्धांत का सहारा न हो तो वे खोखले रह जाते हैं. इस समय भारत दो शब्दों से जम कर खेल रहा है- एफ़.डी.आई. और लोकपाल.
एफ़.डी.आई. सरकार का तोता है, जिसे विपक्ष उड़ाना चाहता है.बहुत दिनों के बाद सरकार कोई ऐसा मिट्ठू लाई है जो सचमुच हराभरा है. महंगाई का जो अजगर सालों से पसरा पड़ा है, इस मिट्ठू की चोंच से उसके बदन पर थोड़ी खलिश ज़रूर होगी. प्रधानमंत्री जैसे भी सही, आखिर अर्थशास्त्री तो हैं ही, शायद खलिश को जुम्बिश में बदल सकें?जुम्बिश हलचल में बदलेगी, और हलचल हुई तो अजगर कुछ तो सरकेगा भी.सरका, तो थोड़ी राहत भी तय है.
यही राहत समय आने पर कहीं 'वोटों' में न बदल जाय? विपक्ष का यह डर भी वाजिब है. लिहाज़ा इस लफ्ज़ की गेंद पर दोनों ओर से थोड़ी शॉट्स और लगने का अंदेशा है.
दूसरा शब्द है- लोकपाल. लगभग वैसी ही स्थिति है. भ्रष्टाचार का अजगर यहाँ भी लेटा पड़ा है.लोकपाल नाम की छड़ी इसे कौंच सकती है. अन्ना की मुहिम छड़ी को तेल पिलाने की है, ताकि वार सनसनाते हुए हों.सरकार की दिलचस्पी इस छड़ी को मुलायम करने की है, ताकि वार जानलेवा न हो जाएँ.
समझ में नहीं आता कि अजगर में सरकार के किस "अपने" की आत्मा बसी है?
सवाल यह भी है कि सरकार देश का भला 'फिफ्टी-फिफ्टी' क्यों चाहती है?
हम भौगोलिक सीमाओं के कितने सगे हैं? हमें संसार प्यारा है, देश प्यारा है , सरकार प्यारी है  या पार्टी प्यारी है ?जनता प्यारी है, या फिर जनता का "वो...ट" प्यारा है?     

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