Saturday, December 3, 2011

वो सौ साल पहले भी था, आज भी है, और कल भी रहेगा.

किसका रस्ता देखे, ऐ दिल ऐ सौदाई?
मीलों है ख़ामोशी, मीलों है तन्हाई... लेकिन यह ख़ामोशी ज्यादा देर रहने वाली नहीं है. वे कहीं न कहीं से निकल कर सामने आ ही जायेंगे. क्योंकि हार के रुक जाना उन्होंने सीखा ही नहीं था.
अभी दर्शकों का दिल भरा भी नहीं था, कि वे चले गए छोड़ कर.
बात देवानंद की हो रही है. जिस शख्स का चेहरा देखकर कभी ये लगता था कि यह बूढ़ा भी कैसे होगा, वह दुनिया से कूच भी कर गया.
देवानंद एकदम खरे आदमी थे. वे युवा चेहरे और रंगीन लिबास में कितने बड़े संन्यासी थे इसका अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है, कि जहाँ उनके समकक्ष और बाद वाले लोग अपनी-अपनी विरासत अपने बेटे-बेटियों को सौंपने के लिए तन-मन-धन से जुटे रहे, वे अपने बेटे सुनील  को यह कहकर दूर से देखते रहे कि अगर उसके क़दमों में ताकत होगी तो अपना रस्ता वह खुद बनाएगा.
दुनियाभर का यह "गाइड" अपने बेटे का गाइड नहीं बना.
जब मजहरखान दुनिया से गए थे, तब जीनत अमान ने जो खालीपन झेला होगा, शायद उस से भी बड़ा खालीपन एक छितराए बादल की तरह उन पर आज भी  छा गया होगा. देव की याद में यही कहा जा सकता है- 'हरे राम हरे कृष्ण.  

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...