Thursday, February 23, 2012

लम्बी कहानी-"थोड़ी देर और ठहर"

     -नहीं-नहीं, जेब में चूहा मुझसे नहीं रखा जायेगा. मर गया तो? बदन में सुरसुरी सी होती रहेगी. काट लेगा, इतनी देर चुपचाप थोड़े ही रहेगा? सारे में बदबू फैलेगी. कहीं निकल भागा तो?
-कुछ नहीं होगा, ये साधारण चूहा थोड़े ही है, सफ़ेद चूहा है. गुलाबी आँखों वाला. रख कर तो देखो. उसने कहा.
-पर इसे संभालेगा कौन? घोड़े के पैरों के नीचे आ गया तो ?
-नहीं आएगा,घोड़ा है ही नहीं.विक्रमादित्य सिंहासन पर बैठा है, घोड़े पर नहीं. घोड़ा तो बाहर महल के अस्तबल में है.
     आखिर उसने मेरी एक नहीं सुनी. सुबह के धुंधलके में वह प्यारा सा सफ़ेद चूहा उसने मेरी जेब में रख दिया.दूसरी जेब पहले ही भरी थी. उसमें रत्नों से जड़ा वह छोटा सा सिंहासन था, जिस पर विक्रमादित्य की आत्मा थी. धीरे-धीरे हाथ हिलाता हुआ वह तांत्रिक नज़रों से ओझल हो गया.
     मुझे कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि सूटकेस तो लगेज में रख लिया गया था. पासपोर्ट, पैसे और दूसरी ज़रूरी चीज़ें हाथ में पकड़े बैग में थीं.हवाई जहाज अब रन-वे पर आ गया था. शहर की ओस भरी सुबह चारों ओर भीगी लाइटों का जाल फैला कर उजलाने को थी.
     जहाज उड़ कर जैसे ही आकाश में आया, धूप कुछ और चमकदार हो गई. नीचे सब साफ-साफ दिखाई दे रहा था. जेब से किसी की-चेन की तरह सिंहासन के हिलने- डुलने की आवाज़ आ रही थी.दूसरी जेब में चूहा गुमसुम और उनींदा था. कुछ सहमा हुआ भी.
     इस फ्लाइट में हज-यात्रा पर जाने वाले लोग ज्यादा थे. सबके चेहरे पर संतुष्टि की चमक थी. सब अपने-अपने स्थान पर व्यवस्थित और खुश थे. एयर-होस्टेस की मुस्कान हाथ में पकड़ी ट्रे की चॉकलेट से भी ज्यादा मीठी थी. आसमान को इतना नज़दीक देख कर शायद सबको अपना गंतव्य दिखने लगा था. नीचे ज़मीन पर साबरमती नदी की लकीर बढ़ती-बढ़ती जैसे ही अरब सागर बनी, बराबर की सीट पर बैठे युवक ने अपना टीवी ऑन कर लिया. मैं अब समंदर देखते रहना चाहता था.इतनी ऊंचाई से समंदर भी भला नीली चादर के अलावा और क्या दिखता? जल्दी ही मैंने खिड़की से मुंह हटा लिया.
     तभी अचानक मुझे सीने में हलकी सी चुभन हुई. ऐसा लगा, जैसे कोई पिन कपड़े में लगी रह गई हो.लम्बे सफ़र पर जाने से पहले लोग नए कपड़े खरीदते ही हैं, और फिर ब्रांडेड कपड़ों की पैकिंग ...कोई पिन कमीज़ में छूट जाना कोई अनोखी बात नहीं थी. मेरा हाथ झटके से सीने पर गया. एकाएक जैसे दिमाग की बत्ती जली. पिनों की डिबिया तो मैं खुद जेब में लेकर चल रहा था. ये ज़रूर उसी सफ़ेद चूहे की करामात थी जो मेरी जेब में था. मैंने जेब की ओर झाँका तो उस चूहे को अपना गुलाबी मुंह जेब से उसी तरह ऊपर उठा कर बाहर निकालते पाया जैसे समंदर की लहरों के बीच अठखेलियाँ करती व्हेल हवाई दुनिया को देखने पानी से बाहर आती है. उछल कर, ढेरों टन पानी के छींटे चारों ओर उड़ाती हुई.और पानी के इस छींटों-भरे फव्वारे पर दर्ज़नों बगुले चारों ओर से फडफडा कर उछलते हैं,पानी में उछली छोटी मछलियों को निगलने. चूहे के इस जम्प पर उछले यादों के छींटों के बीच विक्रमादित्य की आत्मा ने भी ठीक ऐसे ही प्रहार किया. उसकी आवाज़ मेरे कानों में गूंजने लगी. [जारी...]    
        

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