Friday, February 24, 2012

थोड़ी देर और ठहर [ भाग- 3]

     चूहा फिर से मेरी जेब से मुंह निकाल कर झाँक रहा था और चिल्ला-चिल्ला कर विक्रमादित्य की आत्मा से बात कर रहा था- "देखा, देखा आलीजा आपने, ये जनाब पिछले साल अपने कस्बे के स्कूल में 'शाकाहार ही आहार है' प्रतियोगिता के जज थे. इन्होंने मुख्य अतिथि के रूप में वहां शाकाहार की महत्ता पर एक ज़ोरदार भाषण भी झाड़ा था." चूहा उत्तेजित होकर उछला और उसने दोनों पंजों से मेरी कमीज़ का बाहरी किनारा पकड़ लिया.उसकी पूछ उत्तेजना में जेब से बाहर लटक गई.
     चूहे ने अधखाये बिस्कुट का जो टुकड़ा खींच कर मारा था उसने लड़के के हाथ पर झन्नाटेदार वार तो किया, लेकिन लड़का अपने हाथ की सिगरेट बचाने के चक्कर में चूहे को नहीं देख पाया. उसने सारे घटनाक्रम को सहजता से लिया और इसे यात्रा में मेरी घबराहट के तौर पर ही मान कर अनदेखा कर दिया. शायद उसके टीवी पर कोई दिलचस्प कार्यक्रम आ रहा हो, उसका पूरा ध्यान उधर ही था.
     खिड़की से अब क़तर की राजधानी दोहा किसी सुन्दर भित्ति-चित्र की भांति दिखाई दे रही थी. बड़े-बड़े महल-नुमा मकानों की कोई बाउंड्री वाल नहीं थी, लेकिन वे फिर भी पैमाने से लाइन खींच कर सिमिट्री से बनाए दिख रहे थे. उनका रंग शोख और युवा हसीनाओं की तरह चमकता पीला और गुलाबी था. कुछ वर्ष पहले दुनिया-भर के खेलों का आयोजन कर चुका यह शहर हुस्न की बस्ती नज़र आता था. अनुशासन यहाँ फूलों की तरह महकता था.  पर इस मंज़र में ख़लल डालने का काम मेरी जेब में बैठा चूहा बार-बार कर देता था जिस से मैं ज़रा बेचैन था. मुझे दोहा के हवाई-अड्डे पर कुछ घंटे बिता कर, अमेरिका का विमान पकड़ना था.
     एयरपोर्ट की सिक्योरिटी पर मैंने चूहे को छोड़ जाने का मन बना लिया था, मगर मुझे इस बात का अहसास नहीं था कि इसका क्या असर होगा. अजनबी देश में किसी ख़ुफ़िया-गिरी की तोहमत लग जाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता था. सिंहासन किसी की-रिंग की शक्ल में अब भी मेरी जेब में था.
     बैठे-बैठे थोड़े पैर सीधे करने की गरज से मैं केबिन के समीप बने गलियारे में चला आया और टहलने लगा. यहीं सामने की सीट से खड़ी हुई एक प्रौढ़ महिला से मेरा परिचय हो गया. वह मुझसे पूछने लगी कि क्या मैं हज-यात्रा के लिए जा रहा हूँ ? मदीना ?
     इस प्रश्न का नकारात्मक उत्तर देने में मुझे भारी संकोच हुआ. एक तो महिला ने इतने अपनेपन से सवाल पूछा था कि मैं किसी अपरिचय की बेल को अपने बीच फिर से नहीं उगाना चाहता था, दूसरे शायद महिला मुझे मुस्लिम समझ रही थी, इस विश्वास को भी तिरोहित करने के लिए मेरा मन तैयार नहीं था. इस से मैंने बड़ा तपा-तुला उत्तर दिया- अभी तो मुझे अमेरिका जाना है, पर वक्त आने पर मेरा इरादा मदीना जाने का भी है.
     -कब ?
     -"सौ..." मेरी जेब से चूहे ने महिला की बात का उत्तर देने की कोशिश की, पर मैंने हाथ लगा कर उसे रोक दिया. [...जारी ]          

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...