Saturday, April 14, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [ भाग 39 ]

     कहते हैं, ज़मीन चाहे जैसी भी हो, उस पर कभी न कभी हरियाली की रंगत आती ही है. कुदरत की झोली में हर किस्म की मिट्टी के लिए बहारों के नुस्खे हैं, बस सही मौसम के आने  तक धैर्य रखने की दरकार होती है.किन्ज़ान का वह घर जो पिछले कई महीनों से तरह-तरह के असमंजस झेल रहा था, पेरिना के आते ही गुलज़ार हो गया. दीवारें 'घर' की शक्ल में ढल गईं. छत के कोनों में बने जाले और कीट-पतंगों के अस्थाई आवास  ऐसे गुम होने लगे, जैसे उनकी एक्सपायरी डेट आ गई हो.जिस तरह कलई साज़ बर्तनों पर ज़स्ते की कलई से चमक ला देता है, पेरिना के हाथों ने घर की हर चीज़ पर चमक ला दी.
     कुछ दिन के लिए किन्ज़ान ने अपने धंधे से भी मोहलत निकाली, और बफलो से बाहर कुछ  दिन बिताने का कार्यक्रम बनाया. किन्ज़ान के मित्रों ने इसे मधुचंद्र ट्रिप कहा. इस ट्रिप में मित्र-गण कोई नुक्सान नहीं होने देते हैं, और अपने साथी के काम को ऐसे मनोयोग से सँभालते हैं, मानो उनका मित्र किसी आध्यात्मिक जगत की यात्रा पर हो.
     किन्ज़ान के मन के किसी कोने में अपने बचपन के उस छोटे से शहर ग्रोव सिटी की यादें किसी किताब में रखे फूल की तरह रखी थीं, जहाँ के एक  स्कूल में उस ने कुछ दिन तक पढ़ाई की थी.उसने जब पेरिना के सामने  वहां चलने का प्रस्ताव रखा, तो वह ख़ुशी से मान गयी. कहते हैं कि शादी के बाद लड़कियां लड़कों के वर्तमान से ज्यादा  उनके अतीत को जानना पसंद करती हैं. उनके लिए ये उस लॉकर को खोलने के समान होता है, जिसमें उन्हें विरासत में मिला खज़ाना  रखा हो. ये खोज उन्हें आल्हादित करती है कि जिस पेड़ के साए में उन्होंने अपना आशियाना बनाया है, वह किस नर्सरी में उगा, और किस हवा-पानी में जवान हुआ है?
     कुछ ही दिनों बाद वे  पिट्सबर्ग होते हुए डेट्रोइट में थे. एक लम्बी काली लिमोज़ीन में सफ़र करते हुए पेरिना उस रास्ते को देख कर गदगद थी, जहाँ किन्ज़ान  उसे लेजा रहा था. किन्ज़ान  को सोच के दरिया में यादों की हजारों रंग-बिरंगी मछलियाँ तंग कर रही थीं. लाल बड़े पत्थरों से बना यह क़स्बा उसे हवा में घुले गुलदस्ते की तरह लग रहा था. इसकी गोल घुमाव-दार सड़कें सारे शहर की एकता बयां करती थीं.एक-एक इंसान की आँखों  के हिस्से में  बेतहाशा फैला मंज़र आता था. 
     वे जिस निराले से होटल में रुके उसके पिछवाड़े गज़ब की शांति और हरारत थी. माहौल के जिस्म के पोर-पोर में उमंग-भरा उठान था. जब रात आई, सब छिप गया.
     न जाने कहाँ-कहाँ क्या-क्या होता रहा. मनु और श्रद्धा को लेकर किसी दूर-देश में जयशंकर प्रसाद कामायनी रचते रहे...लन्दन के आसपास घर लौटते कवि को डेफोडिल फूल दिखाई दिए...यूनान  में कहीं कोई आदम और हव्वा के लिए थिरकन की थाप गढ़ता रहा...
     ध्रुवों पर न बीतने वाली रात बिक रही थी... किसी के पास समय होता तो जाकर खरीद लाता...[जारी...]   

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