Tuesday, May 1, 2012

सूखी धूप में भीगा रजतपट [भाग 56 ]

     दोनों ओर गर्मजोशी का माहौल बना हुआ था. उधर अतिउत्साह में खिली डेला अपने मिशन की तैय्यारियों के बारे में नई-नई जानकारी देती, इधर उसके माता-पिता और लाडली बेटियां दिन गिन-गिन कर उसके आने की तैय्यारी करते. किन्ज़ान और पेरिना का काम था डेला, उसके पति और मित्रों के लिए रहने का बेहद आराम भरा इंतजाम करना, और सना व सिल्वा पर ज़िम्मेदारी थी, उनके रहने की जगह की सजावट और गरिमामय वातावरण बनाये रखने की. आखिर दूर देश से अपने मित्रों को लेकर डेला दंपत्ति पहली बार जो आ रहे थे. 
     डेला इस समय जिन लोगों के साथ काम कर रही थी, वे जुझारू और कर्मठ तबियत के चाइनीज़ मित्र थे, और वे इन दिनों कई नए-नए प्रोडक्ट्स बना कर उनका बाज़ार ढूँढने के लिए अन्य देशों में उनका प्रदर्शन करते थे. उनकी कम्पनी दिन दूनी-रात चौगनी तरक्की पर थी, और सोचने के लिए उनकी सीमा थी- सिर्फ आकाश. 
     इस तरह की कंपनी की एक अनिवार्य शर्त थी, गोपनीयता. उनके प्लान्स गुप्त होते थे, बिना किसी प्रचार-प्रसार के. वे सफल होने तक इस बात की हवा भी किसी को नहीं लगने देते थे कि वे क्या कर रहे हैं. उनका सिद्धांत था कि 'ग्रीन-रूम' में नहीं, बल्कि मंच पर ही कलाकारों को देखा जाय.
     यही कारण था कि सना और सिल्वा भी यह नहीं जानती थीं कि उनके माता-पिता के आने का प्रयोजन क्या है? उनके लिए इस बात का कोई खास महत्व था भी नहीं. क्या यह पर्याप्त नहीं था कि वे आ रहे हैं?
     उधर यही बात किन्ज़ान और पेरिना के साथ थी. उनके बेटी-दामाद आ रहे हैं, यह उनके लिए किसी त्यौहार के आने जैसी बात थी. बस, यह एक पूरी और मुकम्मल बात थी. इसके आगे-पीछे-ऊपर-नीचे कहीं कोई विराम चिन्ह नहीं था. 
     भारतीय घरों में जब रसोई में खीर बन रही होती है तो गृहिणी का पूरा ध्यान इस बात पर होता है कि खीर में सभी मेवे पड़ गए या नहीं? ये किसे याद रहता है कि क्या त्यौहार है- कृष्ण का जन्मदिन, राम का जन्मदिन, शंकर का जन्मदिन...और भारतीय घरों में ही क्यों, दुनियाभर में मौके-बेमौके व्यंजनों में शक्कर घुलती ही है. फीका केक तो क्रिसमस पर किसी घर में नहीं खाया जाता. हलवा चाहे आटे का हो, दाल का, आलू का,या गाज़र का, मिठास तो अकेली शर्त है ही न. चाहे मेहमानों को डायबिटीज़ ही क्यों न हो. 'व्यंजन' मेहमानों की तीमारदारी थोड़े ही है, वे तो मेजबानों के उल्लास का प्रदर्शन है.
    इस तरह यह दोनों बातें अलग थीं कि जो मेला लगने वाला है, उसमें  बाज़ीगर कौन और तमाशबीन कौन?
     बफलो शहर तो मेहमानों का गंतव्य था ही, उन्हें दूर-दराज़ की जगहों पर घुमाने फिराने की योजनायें भी  बनने लगीं.डेला का आगमन पहले जब-जब भी हुआ था, उसका अभीष्ट होता था, सब घरवालों के साथ कुछ दिन रह लेना. फिर वह आती भी थोड़े से दिनों के लिए ही थी. ऐसा मौका भी आसानी से पहले कभी नहीं आया कि वह अपने पति के साथ यहाँ आई हो. 
     इस बार ऐसा हो रहा था. उनके पास यहाँ रुकने के लिए पर्याप्त समय भी था. मित्रों के साथ आने के कारण घूमने-फिरने का अवसर भी था, दोनों बच्चियों को उनके मनचाहे दिन देने का अवसर तो था ही...बस, कमी थी, तो केवल उस क्षण के आने की, जब मेहमान-दल का विमान  अमेरिका की धरती पर पग धरे...[जारी...]          

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