Thursday, July 12, 2012

कहानी "व्हेल वॉच " का चौथा [ अंतिम ] भाग

      गहरे पानी से निकल कर विशालकाय व्हेल लहरों के ऊपर छपाक से किसी विमान की तरह कूद कर बाहर आती है। उसके आते ही चारों ओर से बीसियों बगुले फड़फड़ा कर इधर-उधर दौड़ते हैं, क्योंकि व्हेल से उड़े पानी के छींटों से सैकड़ों छोटी-छोटी मछलियाँ हवा में उछलती हैं। बगुले उन्हें ही पकड़ने के लिए झपटते हैं। इस तरह एक व्हेल की जुम्बिश से सैंकड़ों मछलियों के भाग्य का निस्तारण होता है। दर्जनों बगुले पलते हैं।यह एक अद्भुत नज़ारा होता है। प्रकृति इन बगुलों का पेट भरने के लिए व्हेल की अंगड़ाई से सैंकड़ों मछुआरों का काम कराती है। बगुलों के लिए यह कुदरत का महाभोज होता है।
     बंगले के बगुले शहर भर की मछलियों को तेज़ी से मोक्ष प्रदान करने को मुस्तैद थे। व्हेल दिखी नहीं थी, मगर पानी हिलना-डुलना शुरू हो गया था। लोगों ने हाथों में डिजायर के कागज़ संभालने शुरू कर दिए थे। मैं तो केवल छुट्टी के दिन का सैलानी था, इसलिए मैंने व्हेल वॉच के लिए आँखों का कैमरा संभाल लिया था।
     थोड़ी ही देर में गलियारे से आते मंत्रीजी दिखे। उनके साथ आठ-दस लोग इस तरह आगे-पीछे चल रहे थे, मानो वे न हों तो मंत्रीजी को यह मालूम न चले कि  उन्हें कहाँ जाना है, कहाँ बैठना है...
     अपने घर में जिस व्यक्ति को बिना मदद के यह नहीं पता चल पा रहा था कि  उसे कहाँ जाना है, उसे प्रदेश-भर के सुदूर गाँव-देहातों को खंगाल कर हजारों लोगों के लिए यह तय करना था, कि  किसे कहाँ से कहाँ जाना है, क्यों जाना है। जैसे एक कंकर सारे तालाब की लहरों को तितर-बितर करके पूरे तालाब को झनझना देता है वैसे ही मंत्रीजी को भी पूरा प्रदेश अपने हाथ की जुम्बिश से हिला देना था। उनकी चिक से उड़ी मक्खी  जिस कागज़ पर बैठ जाती उस कागज़ की नाव सड़कों और पटरियों को पार करती, नदियाँ-जंगल-पहाड़ लांघती, खेतों-बाजारों से गुजर जाती।
     लोग इसी जुम्बिश की आस में उनके नाम के जयकारे लगा रहे थे। मेरी तो छुट्टी थी, मैं तो व्हेल वॉच का आनंद लेने वाला एक सैलानी था ...! [समाप्त ]

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