Wednesday, October 3, 2012

नीरज,निदा फाजली दलाई लामा और वो

     वह एक छोटा सा क्लब था। क्लब ने गाँधी जयंती मनाने के लिए शाम को एक छोटे कमरे में बच्चों को इकठ्ठा कर दिया। बच्चों से कहा गया कि वे दिए हुए समय में कुछ भी करें। बच्चे इतने तो समझदार थे ही कि वे गाँधी जयंती मनाने के लिए दिए गए समय में क्रिकेट न खेलें।
    बच्चे खुश हो गए। वे गा सकते थे, रंगों से खूबसूरत चित्र बना सकते थे, गीतों की अन्त्याक्षरी खेल सकते थे। कुछ समय बाद एक बच्चे ने आकर अपने टीचर को बताया कि  उसने दलाई लामा का चित्र बनाया है। दूसरे बच्चे ने कहा कि  उसने निदा फाजली पर निबंध लिखा है। तीसरा बच्चा बोला कि  उसने नीरज के एक गीत की दो पंक्तियाँ याद की हैं।
    टीचर ने घोषणा की कि  अब समय समाप्त होता है, बच्चे जा सकते हैं। बच्चे चहकते हुए चले गए। जाते हुए बच्चों की आवाज़ में टीचर ने एक आवाज़ सुनी- टीपू सुलतान की जय! टीचर का माथा ठनका, गाँधी जयंती पर बच्चे टीपू सुलतान की जय क्यों बोल रहे हैं?
     टीचर की समझ में कुछ न आया। कमरे का दरवाज़ा बंद करते समय जब टीचर ने लाइट बुझानी चाही तभी टीचर के दिमाग की बत्ती जली। ज़मीन पर रखे एक अखबार में दलाईलामा का फोटो दिखाई दिया। पास ही में नीरज का एक गीत छपा था, और नीचे निदा फाजली का इंटरव्यू था। अब टीचर इतना भी नासमझ तो नहीं था, कि  टीपू सुल्तान की जय का तात्पर्य न जाने। आखिर 'क्रियेटिविटी' की क्लास चलाता था।

2 comments:

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...