Tuesday, October 23, 2012

"साहब का अफ़सोस"

 बात उन दिनों की है जब हमारे देश में अंग्रेजों का आगमन हो चुका था। शहरों पर तो उनका आधिपत्य हो ही चला था, गाँव भी उनकी चकाचौंध से अछूते नहीं रहे थे। वे साम-दाम-दंड-भेद अपना वर्चस्व विभिन्न समुदायों पर कायम कर ही लेते थे। कहीं-कहीं लोग उनसे घृणा भी करते थे, अतः विरोध स्वरुप उनके बहकावे में न आने के लिए जन-सामान्य को सतर्क करते थे, मगर कुछ लोग ऐसे भी थे जो भारतीय विपन्नता और हताशा से ऊबे हुए थे, अतः वे ललचाई नज़रों से अंग्रेजों के क्रिया-कलाप देखते, और उन्हें अपनाने की चेष्टा भी करते।
ऐसे क्रिया-कलापों में सर्वाधिक लोकप्रिय थी घर में कुत्ता पालने की प्रथा।
प्रायः हर अंग्रेज़ अपने घर में कोई न कोई बढ़िया नस्ल का कुत्ता रखता था। उसे इंसानों की भांति सभी सुविधाएं सुलभ करवाई जाती थीं। प्रत्येक सुबह वे बड़ी शान से उन कुत्तों को घुमाने के लिए सड़क पर निकलते। इस सैर में अंग्रेजों और कुत्तों के बराबर ठाठ होते। एक सुन्दर पट्टा ज़ंजीर सहित कुत्ते के गले में पड़ा होता, और एक भव्य हैट  अंग्रेज़ मालिक के सर पर होता। कोई-कोई उम्रदराज़ व्यक्ति हाथ में छड़ी रखना भी पसंद करता। हर गाँव वाला रौबदार अंग्रेज़ बहादुर को शान से कुत्ते के साथ गुजरते हुए कौतुहल से देखता।
एक दिन गाँव से कुछ दूर सड़क पर घूमते  हुए अंग्रेज़  अफसर ने देखा कि  सड़क के किनारे एक मुर्गा घूम रहा है। अंग्रेज़  के हाथ में अपनी बढ़िया विलायती कुतिया की ज़ंजीर थी। उसने यह सोच कर ज़ंजीर को कस कर पकड़ लिया कि शायद कुतिया मुर्गे पर झपटेगी। कुतिया ने उस तरफ देख कर भौंकना शुरू कर दिया था। आशा के विपरीत मुर्गा कुतिया के पास तक चला आया। अंग्रेज़  के साथ-साथ कुतिया को भी हैरत तो हुई पर मुर्गे को न डरते देख कर कुतिया थोड़ा सहम गई। अंग्रेज़  मालिक को मुर्गे और कुतिया की इस मुलाक़ात में रस आने लगा। वह चुपचाप रुक कर आमने-सामने खड़े दोनों प्राणियों को देखता रहा। उसने देखा, अब कुतिया ने भौंकना बंद कर दिया है। मुर्गे ने भी गर्दन उठा कर जोर से बांग दी- "कुकड़ू कूँ " और अकड़ कर वापस जाने लगा।
अब यह रोज़ का सिलसिला बन गया। अंग्रेज़ महाशय घूमने आते, तो ठीक उसी वक्त पर मुर्गा भी टहलता हुआ चला आता। उनकी कुतिया की मानो मुर्गे के साथ दोस्ती हो गई। दोनों एक दूसरे को पहचानी नज़रों से देखते और ऐसे खड़े हो जाते मानो बातें कर रहे हों।
कुछ दिन के बाद कुतिया ने सुन्दर से तीन पिल्लों को जन्म दिया। अब उसका घूमना बंद हो गया था, वह घर में ही रहती। सर्दी में कुतिया के प्यारे बच्चे गद्दी में लिपट कर कूँ-कूँ करते रहते।
एक दिन अचानक न जाने क्या हुआ, अंग्रेज़ महाशय ने अपनी छड़ी उठाई और अपनी प्यारी कुतिया को तड़ा तड़ पीटना शुरू कर दिया। कुतिया के चिल्लाने की आवाज़ से घर के नौकर-चाकर दौड़े, पर किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि साहब अपनी पसंदीदा पालतू कुतिया को क्यों पीट रहे हैं। साहब बुदबुदाते जाते थे-'हम इधर लोगों को अपना लैंग्वेज़ सिखाने की कोशिश करता, ये साला उस देसी मुर्गे का लैंग्वेज़ सीख कर आ गया ...' साहब का बुदबुदाना न तो देहाती नौकर-चाकर समझे,और न ही वे छोटे-छोटे पिल्ले, जो सर्दी और भय से अब भी कूँ कूँ किये जा रहे थे।      

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