Thursday, November 22, 2012

सपनों के गाँव में, काटों से दूर कहीं, फूलों की छाँव में

इस प्रस्ताव पर किसी को कोई एतराज़ नहीं हो सकता। यदि आपसे कोई कहे कि  चलो चलें, सपनों के गाँव में, काँटों से दूर, फूलों की छाँव में, तो आप यह सोच कर खुश ही होंगे, कि  यदि दुनिया में कोई ऐसी जगह है तो क्यों न उसे देखा जाए।
दुनिया में ऐसी जगह है। यदि आप उसका पता-ठिकाना जानना चाहते हैं, तो आँखें बंद कीजिये।
अब आँखें खोल लीजिये। देखिये अपने चारों ओर। है न ठीक वैसी ही जगह, जैसी आप चाहते हैं।
यदि वास्तव में आपको अपने आस-पास  ऐसी जगह दिख रही है,तो उसका आनंद लीजिये, घूमिये, सोचिये, विश्लेषण कीजिये कि  क्यों आप आना चाहते थे ऐसी जगह?
अब बात करते हैं उस स्थिति की, अगर आपको ऐसी जगह नहीं मिली, तो ये कार्यविधि अपनाइए-
1.थोड़ा अन्वेषी नज़रों से इधर-उधर जा कर गहराई से देखिये, होगी।
2.जहाँ आप हैं, उस जगह की ही पड़ताल करके देखिये, क्या उसे ऐसी जगह में तब्दील किया जा सकता है? क्यों न अपने आस-पास के कांटे हटा कर देखें। धूप है, तो चलते जाइए, जहाँ धूप ख़त्म होगी, निश्चित रूप से वहां छाँव होगी ही। यदि सपनों का गाँव कुछ अलग सा है, तो ज़रा एक बार सपना ही फिर से देखें, अपना गाँव ही क्यों न उसमें देखें।
आपने बहरूपिये देखें हैं? देखिये, इसी वेश में आपको अपने आस-पास ईश्वर भी घूमता-फिरता दिखेगा। पहचान लीजिये, बहुत तरह के लिबास हैं उसके पास। हो गई न मुकम्मल जगह? इसका नाम है-"दुनिया!"

No comments:

Post a Comment

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...