Thursday, November 22, 2012

मुंबई में समुद्र के किनारे बैठे हुए उसने कहा था- वो कमलेश्वर हैं तो हम भी ...

वो तब उन्नीस साल का कालेज से ताज़ा-ताज़ा निकला युवक था। वह मेरे पास आया, और कुछ दिन रहा। दिनभर हम अपने-अपने काम में व्यस्त रहते, शाम को फुर्सत से हमारी मुलाक़ात होती। उन दिनों घर समंदर से ज्यादा फासले पर नहीं था, इसलिए हम खाना खाने के बाद पैदल टहलते हुए निकलते, और सागर के किनारे देर तक टहलते। हम बातों में इतने मशगूल होते कि  न हमें समय का ख्याल रहता, और न ही इस बात का, कि  बस, एक छोटी सी रात बीच में है, फिर काम पर जाना है। मैं तो मुंबई की गर्मी का अभ्यस्त था, लेकिन उसे ये बहुत खुशगवार नहीं लगती थी। वह न जाने कब बातें करते-करते भी अपने पायंचे मोड़ कर ऊपर चढ़ा लेता, और पानी में पैर डाल कर बैठता।
एक दिन मैंने उस से कहा- "कल मुझे एक काम से कमलेश्वर के पास जाना है, चाहो तो तुम भी चलना।" कमलेश्वर तब मुंबई के साहित्य-जगत में फहराती सबसे ऊंची पताका का नाम था। वह युवक भी साहित्य-जगत की बगिया का नया पंछी था, मैंने सोचा, वह कमलेश्वर का नाम सुन कर कृत-कृत्य हो जायेगा और उनसे मिलकर तो फूला नहीं समाएगा।
पर उसने मेरा प्रस्ताव सुन कर तत्काल कहा- "वह कमलेश्वर हैं, तो हम भी ..."
वह कुछ दिन बाद चला गया। फिर हम कभी नहीं मिले, और लगभग तीस वर्ष का समय गुजर गया। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले कमलेश्वर मेरे शहर में आये, और एक गेस्ट-हाउस में ठहरे। शाम को जब मैं उनके पास जाने लगा तो मेरे कुछ मित्रों ने कहा, कि  मैं उन्हें भी साथ ले चलूँ, और कमलेश्वर से मिलवादूं।पर जब मैंने कमलेश्वर के कमरे में पहुँच कर उन्हें देखा, तो मैंने साथ आये मित्रों को लौटा देना ही मुनासिब समझा। देर रात कमलेश्वर के पास से लौटा तो मैं नहीं जानता था कि  यह उनसे मेरी आखिरी मुलाक़ात है।
अब कमलेश्वर नहीं हैं, पर लगभग पैंतीस साल बाद आज फोन पर मेरी अपने उसी मित्र से बात हुई है। वह कुछ दिन बाद मुझसे मिलने आ रहा है।अब जब वह आएगा, हम कमलेश्वर की नहीं, खुद अपनी-अपनी कहानियों की बातें करेंगे। पर उन कहानियों की नहीं,जो हमारी किताबों में दर्ज हैं,बल्कि उन कहानियों की,जिनके पात्र हम खुद हैं।      

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