Saturday, December 1, 2012

निजी दुःख-सरकारी दुःख

शादियों का सीजन है। शादी चाहे प्यार से हो, चाहे व्यापार से,होती तो सीजन में ही है।
शादियों के सीजन में दफ्तर खाली रहने लगते हैं, क्योंकि कर्मचारियों-अधिकारियों को बरातों में शिरकत करनी पड़ती है।स्कूल-कालेज सूने होने लगते हैं, क्योंकि सड़कों पर बच्चों और युवाओं को नाचना पड़ता है।मिल-कारखाने धीमे चलने लगते हैं, क्योंकि मजदूरों-मालिकों को मुफ्त की रोटी का बुलावा होता है। बाज़ारों में उफान आजाता है, क्योंकि यह महिलाओं के लिए साड़ी के मैचिंग रंग की नेलपॉलिश और पर्स के मैचिंग रंग की चप्पलें खरीदने का सीजन होता है। जौहरियों  की दूकान पर सोने के कंगन बिकने से लेकर गलियों में चेन लुटने तक का सीजन होता है।
दीवाली की रंग-बिरंगी रोशनी बिना दीवाली के चमकाने का सीजन होता है। आतिशबाजी ईद, दीवाली और क्रिसमस के साथ गुरुपर्व तक, सबकी याद एक साथ दिला देती है। सड़कों पर भेड़ -बकरियों की तरह रगड़ खाती कारें, इन दिनों सज-धज के चलने लगती हैं, क्योंकि उन्हें दूल्हा-दुल्हन लाने के कांट्रेक्ट मिलने लगते हैं।
डायबिटीज़,ब्लडप्रेशर,बदहजमी और गैस के रोगियों को बीबी की नुक्ताचीनी के बिना मसालेदार भोजन बिना कण्ट्रोल मिलता है।
ऐसे में थोड़ा बहुत दुःख-सुख भी मिले, तो लोग आराम से झेल जाते हैं।
और अगर दुःख भी सरकारी हो तो लोग ख़ुशी ...क्षमा कीजिये आसानी से सह जाते हैं, फिर चाहे एक दिन का हो या सात दिन का। आधा झुका झंडा, पूरी लहराती झंडियों में दीखता ही किसको है?         

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