Monday, December 30, 2013

सरक गए सितारे

सर्दी और धुंध ने आसमान को ढक लिया है, किन्तु फिर भी जहाँ ये साफ-साफ दिख रहा है, वहाँ थोड़ा  सा ध्यान देने पर आप अच्छी तरह देख पाएंगे कि आकाश के सभी सितारे अपनी-अपनी जगह से थोड़ा-थोड़ा सरक गए हैं। यह कोई भौगोलिक घटना नहीं है, ये तो सामान्य से शिष्टाचार की  बात है।  सभी तारों ने सरक कर थोड़ी सी जगह बनाई है, ताकि आसमान में आने वाला उनका नया साथी भी वहाँ रह सके।
वह कल आने वाला है न !
वर्ष २०१३ है वो नया मेहमान जो अब अम्बर में रहेगा।  इतिहास में रहेगा।  सबको दिखाई देते हुए और सबकी पकड़-पहुँच से दूर। धरती पर अब २०१४ रहेगा।
आइये, इस परिवर्तन के लिए अपने को तैयार करें।
शुभकामना दीजिये कि इस साल मैं अपना यह संकल्प पूरा कर सकूं -
-"मैं जो कर न सकूं उसे करने के बारे में कहना तो दूर, उसके बारे में सोचूँ भी नहीं, लेकिन कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर करूँ जो कभी सोचा भी न हो"
 
      

Saturday, December 28, 2013

दे जाते हैं जाने वाले

यह सच है कि जाने वाले जाते-जाते भी बहुत कुछ दे जाते हैं।  २०१३ के जाने में अभी कुछ समय शेष है, मगर इसने हमें जाते-जाते भी कितना कुछ दे दिया।
इसने हमें यह ज्ञान दे दिया कि अहंकार कितना ही बलशाली हो, उसका दर्प टूट कर ही रहता है।
इसने हमें यह भी सिखा दिया कि "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता" जैसे मुहावरे कभी पुराने नहीं पड़ेंगे।
इसने यह भी बता दिया कि वर्ष दर वर्ष जलाये जाने वाले रावणों का कद कितना भी बढ़ता जाए, उनका तहस-नहस हो जाना तय है।
इस जाते हुए साल ने हमें बहुत से आंसू, पश्चाताप और चिंतन-मनन की लगातार ज़रूरत का सबक भी दे दिया।
चलिए, सर्दी का बेजा फायदा उठाते हुए गरिष्ठ और भारी-भारी बातें न करें, हलकी धूप में कुछ हल्का-फुल्का गुनगुना भी लें-
"शाम सुहानी महकी-महकी ख़ुशबू तेरी लाये, दूर कहीं जब कलियाँ चटकें, मैं जानूँ तू आये, आजा रे…"
ये आवाज़ याद है आपको?
याद रखियेगा, शायद अब फिर दुबारा न आये...हम बात कर रहे थे जाने वालों की !      

Friday, December 27, 2013

लघुकथा में वैचारिक निकष "मानव" से ही आने की अनिवार्यता?

कुछ समय पहले मैंने एक लघुकथा लिखी थी- ग़मक !  इस रचना में टाँगे का घोड़ा एक पैर से ज़ख़्मी था, किन्तु उसके मालिक को समय और सुविधा न मिल पाने से वह घोड़े को जानवरों के हस्पताल में नहीं ले जा कर सवारियां ढोने में लगा हुआ था। एक बार अच्छी आमदनी हो जाने पर मालिक उसे चिकित्सा के लिए ले जाने का विचार बनाने लगा।  घोड़ा  इस बात से खुश होकर अपने कष्ट को भूल बैठा, और घोड़े के व्यवहार में आये इसी व्यवहार को भांप कर मालिक ने उसके इलाज़ पर खर्च करने का इरादा मुल्तवी कर दिया।  घोड़ा  फिर उसी अवसाद में डूब गया और उसने मालिक के व्यवहार में आई इस दुनियादारी को उसकी आवाज़ की ग़मक में आई कमी बता कर अपना जी हल्का किया।
आज इस लघुकथा को पढ़ते हुए "तीन" बातें मेरे मन में आईं।
-क्या "घोड़े" का सोचना रचना को कोई सार्थक निकष दे सकता है?
-दाना या घास खाकर इंसान के लिए काम करने वाले घोड़े और घोड़े के श्रम को प्रबंधित करके धन कमाने वाले आदमी में से मालिक किसे कहा जाना चाहिए?
-"निकष"आदमी या निर्जीव-सजीव पात्र से आता है अथवा इन सब की परिस्थिति पर लेखकीय संवेदनशीलता की आंतरिक व्याख्या से?
यह सब मुझे ही बुरी तरह उबाऊ लग रहा है, आप पर तो न जाने क्या बीत रही होगी?
    

Sunday, December 22, 2013

"वेक्यूम क्लीनर" नहीं कह सकते थे?

झाड़ू के भाग बड़े तगड़े, "हाथ" से छीन के ले गई कुर्सी।
ये भी नहीं सोचा कि बात दिल्ली की  है, जिसकी कुछ शान है, मान है, आन है।
अरे अगर दिल्ली को झाड़ना ही था तो चुनाव आयोग से 'वेक्यूम क्लीनर' ही मांग लिया होता।  आखिर वह भी तो क्लीन ही करता है।  और दिल्ली में वेक्यूम भी तो कर ही दिया न, चाहे कुछ ही दिनों के लिए सही।
चलो, इस बार जो किया सो किया, पर अब मत करना।  आम आदमी कुर्सी पर नहीं बैठा करते, कुर्सी तो बनी ही ख़ास लोगों के लिए होती है।  झाड़ू को झाड़ना ही सुहाता है, झगड़े -पचड़े में पड़ना शोभा नहीं देता।
और अबकी बार सफाई कोई दिल्ली-मुम्बई-कोलकाता की ही नहीं है, समूचे हिंदुस्तान की है।
पता है, सफाई से मक्खी,मच्छरों, कीड़ों-मकोड़ों को कितनी तकलीफ होती है? सड़क धुलती है तो ये दुकानों में जा बैठते हैं, दुकानें धुलती हैं तो ये बाज़ारों में भिनभिनाने लगते हैं।
जब मध्य प्रदेश और बिहार धुलते हैं तो ये दिल्ली में आ बैठते हैं।  दिल्ली धुलती है तो ये अपने-अपने सूबों को अपना ठिकाना बना लेते हैं, ताकि जैसे-तैसे वनवास के दिन काटें और पांच बरस बाद फिर आ धमकें।
अब सब कुछ एकसाथ धुल गया तो ये बेचारे कहाँ जायेंगे? जब अन्ना जैसे फिफ्टी-फिफ्टी में मान सकते हैं तो आम आदमी पूरे पर क्यों अड़े? सुर आधा ही श्याम ने साधा, रहा राधा का प्यार भी आधा।           

Thursday, December 19, 2013

३५५ तेज़-रफ़्तार दिनों के बाद ये १० सुस्त-कदम दिन

मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि एक नए साल के आगमन की  उल्टी -गिनती फिर शुरू हो गई।  क्या सचमुच २०१३ जा रहा है?
मेरे इस आश्चर्य में एक बड़ा भाग तो पश्चाताप का है, कि मैं इस वर्ष लिए गए संकल्पों में से किसी का भी पालन ठीक से नहीं कर सका।  मुझे तो ये याद भी नहीं, कि मैंने क्या संकल्प लिए थे !
अब क्या हो?
क्या मैं बचे हुए १०-११ दिनों में ही ज़ोर शोर से उन संकल्पों को पूरा करने में जुट जाऊँ ?
या मैं इस तरह खामोशी से बैठा रहूँ, कि जैसे मैंने कोई संकल्प लिए ही नहीं थे।
अथवा मैं मन ही मन अपने आप से माफ़ी मांग लूं, कि मुझसे भूल हो गई।
या फिर मैं कोर्ट-कचहरियों के मुवक्किलों की तरह अथवा बैंकों के कर्ज़दारों की तरह अपना वादा पूरा करने की कोई नई तारीख पड़वालूं?
या फिर गंभीरता से यह सोचूँ,कि इस बार जो भी संकल्प लूँगा उसे ज़रूर पूरा करूँगा ?
नहीं तो चाँद सूरज पर ये लांछन ही लगाऊँ कि ये इतनी तेज़ी और नियमितता से भागते हैं कि वक्त यूँही गुज़र जाता है और कुछ हो ही नहीं पाता।
अब बंद करता हूँ, मेरा एक मित्र मुझसे सवाल कर रहा है कि मैं अपना समय कैसे काटता हूँ? 

Friday, December 13, 2013

कोई तो राह निकालो

राजतन्त्र में राजा होता था।  और वह जब बूढ़ा या अशक्त हो जाए, तभी उसे यह चिंता सालने लगती थी कि मेरे बाद मेरे राज्य का क्या होगा? यहाँ कौन राज्य करेगा?जनता की जिम्मेदारी कौन उठाएगा ?
यदि राजा के कोई पुत्र न हो, या पुत्र राजा बनने के योग्य न हो, या फिर कई पुत्र होने के कारण उन में गद्दी के लिए संघर्ष होने की  आशंका हो, तो राजा अपने जीते जी सतर्क हो जाता था।  वह भविष्य का फैसला वर्तमान में ही करने की  चेष्टा करता था, चाहे उसे किसी दूसरे का पुत्र दत्तक ही क्यों न लेना पड़े। बहरहाल राज्य को उत्तराधिकारी देना उसी का कर्तव्य माना जाता था।
जनतंत्र आया तो लगा कि अब ऐसी समस्या नहीं आएगी, क्योंकि जनतंत्र में तो हर एक व्यक्ति राजा होने की हैसियत रखता है। फिर राज्य में "जन" का तो कभी अभाव भी नहीं होता।  लेकिन दिल्ली में फिर भी समस्या आ ही गई। राजा ने खेल-खेल में इतना खाया कि उसे कुर्सी से जाने का भी अंत तक नहीं पता चला।  उसके दिमाग में ये सोच तो सपने में भी नहीं आया कि मेरे बाद मेरे राज्य का क्या होगा। जनतंत्र की  सबसे बड़ी कमी यही है कि यहाँ कुर्सी से फिसल कर गिरते हुए को भी उम्मीद बरकरार रहती है।
राजतंत्र में राजा के हाथ में तलवार होती थी।  जनतंत्र में खाली "हाथ" रह गया।  और जब दुनिया जनतंत्र की अनदेखी करने लगी तो तंत्र के हाथ में झाड़ू आ गई।  और फिर? फिर तो गज़ब हो गया।  झाड़ू में हाथ आ गया। अगर मज़बूत हाथ हो, हाथ में फूलझाड़ू हो, तो सब कुछ साफसुथरा रहे।  मगर जब हाथ अलग, फूल अलग और झाड़ू अलग... तब क्या हो? कोई तो राह निकालो ! सर जी सरकार बनालो ! कुर्सी का मान बचालो !             

Monday, December 9, 2013

संविधान के साये में दिल्ली की दवा

दिल्ली थोड़ी देर के लिए रुक गई।  हमारा मकसद यह नहीं है कि हम दिल्ली के इस ठहराव और किंकर्तव्य विमूढ़ता के कारण तलाश करें।  हमारा उद्देश्य केवल यह है कि हम संविधान के उजाले में दिल्ली के लिए रास्ता खोजें।
विधान सभा के चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बीजेपी है मगर उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। आम आदमी पार्टी अच्छी-खासी तादाद लेकर जीती है पर वह न तो किसी का समर्थन करना चाहती है, और न ही किसी का समर्थन लेना।
कांग्रेस पराजित हुई है और उसकी नेता के भी न जीत पाने से उसमें इस समय मनोबल की  ज़बरदस्त कमी है जिसके चलते वह सरकार बनाने के लिए किसी तरह की  पहल करने की  स्थिति में अपने को नहीं पा रही है।
जनता दल यूनाइटेड मात्र उपस्थित है।
ऐसी स्थिति में संविधान के अनुसार ये सभी दल अथवा इनमें से कोई भी अन्यों के सहयोग से सरकार बना सकते हैं।  संविधान में "राष्ट्रीय नैतिकता" का उल्लेख है।
यदि कुछ दल विपक्ष की  भूमिका में ही रहना चाहते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विधायकी केवल अधिकार नहीं, वह संविधान में एक कर्त्तव्य की  तरह भी उल्लेखित है।
यह बात अलग है कि प्रायः ऐसी स्थिति आती नहीं है।  शेर के सामने पड़ जाने पर आदमी को क्या करना होगा, यह किसी संहिता में अक्सर दर्ज़ नहीं होता क्योंकि ऐसे में जो भी करना है वह अमूमन शेर ही करता रहा है।  यह संविधान निर्माताओं ने कभी सोचा नहीं होगा कि यदि जनता के वोट से जीत कर आ जाने के बाद भी कोई जनता के लिए रचनात्मक जिम्मेदारी न उठाना चाहे तो क्या होगा, ठीक उसी तरह, जैसे गांधीजी ने यह नहीं बताया कि एक गाल पर चांटा खाने के बाद, दूसरा गाल आगे कर देने पर यदि सामने वाला दूसरे गाल पर भी चांटा मार दे तो क्या करना होगा।
कभी-कभी एकतरफा बात कही जाती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय नैतिकता का पालन किया जाना चाहिए। मसलन जो भी विधायक व्यक्तिगत तौर पर सरकार की  जिम्मेदारिया उठाना चाहें, उन्हें यह सुविधा मिलनी चाहिए।  अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार इस काल्पनिक परिकल्पना का उल्लेख किया भी था।      

Friday, December 6, 2013

रत्न केवल चमकने वाले कीमती पत्थर नहीं हैं, वे भला-बुरा भी करते हैं

नेल्सन मंडेला नहीं रहे।  उनका जीवन भले ही सिमट गया, पर जीवन के अक्स सदियों नहीं सिमटने वाले।  वे "भारत-रत्न" थे।  उनके अवसान पर भारत में भी छह दिन का राजकीय शोक घोषित हो गया है।  वैसे उनका दुःख किसी घोषणा से वाबस्ता नहीं है, वे होगा ही।
ऐसी मिसालें तो दुनिया में बहुत हैं, जब लम्बी कैद ने कैदी का ह्रदय परिवर्तन कर उसे सुधार दिया, किन्तु ऐसी मिसाल करोड़ों में एक होती है जब किसी कैदी को मिली लम्बी कैद ने जेल के बाहर की दुनिया को सुधार दिया।
उनका दुःख दुनिया भर को शोक-संतप्त बना रहा है।
यहाँ तक कि भारत के उन चुनावी राज्यों में भी उनके दुःख ने असर डाला है, जहाँ पिछले दिनों चुनाव होकर चुके हैं। चुनावों के नतीजे तो अभी आठ तारीख को मतगणना के बाद आयेंगे, लेकिन सर्वेक्षणों, कयासों और अटकलों ने जो माहौल बना छोड़ा है उस पर भी नमी की  शबनमी बूँदें टपक गईं हैं।
जो हारते दिख रहे थे, उनके चेहरों पर उड़ती हवाइयों ने 'राजकीय शोक' का लिबास ओढ़ लिया है।  जो भविष्य-वाणियों को सुन-सुन कर ही झूमने लग गए थे, वे कुछ देर के लिए संजीदा हो गए हैं।
मंडेला का इतना प्रभाव तो होना ही था, आखिर वे "भारत रत्न" रहे हैं।
महान नेता को भाव भरी श्रद्धांजलि !     

Tuesday, December 3, 2013

कितनी दूर अब दिल्ली?

आज दिल्ली में मतदान हो रहा है। इस बार एक विशेष बात इस चुनाव से जुड़ गई है।  अक्सर कहा जाता है कि पढ़ाई-लिखाई अधिकतर समस्याओं का हल है, इसलिए शिक्षा का प्रसार होने से हमारी समस्याएं सुलझती हैं।  पहली बार ऐसा हो रहा है कि एक उच्च शिक्षित मेधावी व्यक्ति ने केवल बुद्धि और विचार को आधार बना कर चुनावी माहौल में कदम रखा है।  यह बात एक ऐसे राज्य और शहर की  है जो केवल उच्च शिक्षित ही नहीं, बल्कि देश की  राजधानी भी है।
लगता है कि आज बुद्धि और विचार राजनीति के अखाड़े में फरियादी हैं। देखना है कि भ्रष्टाचार और मदांध सत्ता के बीच बौद्धिक और वैचारिक प्रयास कहाँ ठहरते हैं?
कहा जाता है कि दिल्ली हमेशा से सुविधाजीवी और अहंकारी रही है, इसे देश से लेना ही आता है, कुछ देना नहीं! आज इस बात का भी फैसला होना है कि दिल्ली "सुधार" को किताबी बात समझती है या सुधरना भी चाहती है।   

Saturday, November 30, 2013

सबसे बड़ा खलनायक

राजस्थान में आज विधानसभा के लिए वोट पड़ रहे हैं। पार्टियां,प्रत्याशी, पैसा और पॉवर अपने चरम पर हैं।  "कथनी और करनी" जैसे मुहावरे नई पीढ़ी बिना पढ़े सीख रही है।
निर्वाचन आयोग ने कहा है कि प्रत्याशी सीमा से ज्यादा खर्च न करें।  निर्वाचन आयोग का नोटिस घर-घर जाकर नहीं पढ़वाया जा सकता।  ये ज़िम्मेदारी मीडिया की  है कि इस बारे में लोगों को सही और सटीक जानकारी दे, और ऐसे फैसलों पर अनुवर्तन करने में आयोग की  सहायता करे।  लेकिन हो उल्टा रहा है। मीडिया कई बिल्लियों के बीच बन्दर की  भूमिका में है।  लोगों को सही बात समझाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है।  वह तो खुद अनाप-शनाप, उल्टे-सीधे, परस्पर विरोधाभासी विज्ञापन सभी के लिए छाप कर सबकी जेब से पैसा बटोरने में लगा है।
सेठों के हाथों में खेलता मीडिया बड़े-बड़े पैकेज पार्टियों से लेकर अंतिम समय तक उनके उम्मीदवारों की झूँठी आरती गाने में लगा है, और अरबों रूपये के इन विज्ञापनों की कम्बाइंड रसीद देकर प्रत्याशियों को बचाने और चुनाव आयोग की  आँखों में धूल झौंकने का काम कर रहा है।
उस पर तुर्रा यह, कि मीडिया "पेड न्यूज़" न छापने का अपना खुद का छोटा सा विज्ञापन भी साथ में छाप कर जनता के जले पर नमक छिड़कने और समाज की  बौद्धिकता पर घिनौना पलीता लगाने का काम कर रहा है।
लगता है कि मीडिया आज न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की  निगरानी छोड़, खुद सबसे पहले सड़ गया।         

Sunday, November 24, 2013

ऐसे भी हुए निर्णय

"भारत रत्न" सम्मान मोहनदास करमचंद गांधी को नहीं मिला?
अरे,क्यों?
क्योंकि वह अब्दुल गफ्फार खान अर्थात "सीमान्त गांधी" को मिला।
तो क्या हुआ?
एक से विचार,एक से कार्य,एक से व्यक्तित्व के लिए दो लोगों को पुरस्कृत करने से क्या लाभ? लता मंगेशकर को यह पुरस्कार मिला, तो क्या आशा भोंसले, किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश को भी मिले?
अरे पर अब्दुल गफ्फार खान को आज़ादी के कई दशक बाद मिला, तब तक महात्मा गांधी के नाम पर विचार नहीं हुआ?
जिस समिति ने राजीव गांधी को इसके योग्य पाया उसी ने वल्लभ भाई पटेल या सुभाष चन्द्र बोस को भी  योग्य पाया। सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु कब हुई?
१९४४ में।  पर कोई-कोई कहता है कि अब तक नहीं हुई।
राजीव गांधी का जन्म ?
१९४४ में।
इस सम्मान का नाम "रत्न" है, रत्न चाहे किसी के राजमुकुट में जड़ा हो, चाहे किसी खदान के गहरे गड्ढों में दबा हो,वह रत्न ही है। वह ज़मीन से निकल कर जब भी उजालों में आएगा, तभी दमकेगा।
इतिहास गवाह है कि गौतम को ज्ञान तब हुआ जब वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठे।  सम्राट अशोक में अहिंसा भाव तब जगा जब उनकी तलवार से सैंकड़ों क़त्ल हो चुके थे।  ज़ंज़ीर हिट तब हुई जब सात हिंदुस्तानी, रेश्मा और शेरा, बंसी बिरजू, एक नज़र, बंधे हाथ,बॉम्बे टू गोआ फ्लॉप हो चुकी थीं !
घटिया उदाहरण।         

Tuesday, November 19, 2013

नए बिरवे रोपने से पहले पुरानों की सुध भी तो ले कोई!

पेड़ लगाने का ही नहीं, उनको हरा-भरा रखने का काम भी ज़रूरी है।
आजकल भारत में "रत्नों" का खनन चल रहा है।  सब अपनी पसंद का कोई न कोई नाम 'भारत-रत्न' सम्मान के लिए सुझा रहे हैं।
कुछ लोगों को उन लोगों पर छींटा-कशी करने में ही आनंद आ रहा है, जिन्हें यह सम्मान मिला है।
इसमें कोई संदेह नहीं, कि देश के मौजूदा दौर में कुछ ऐसी शख्सियतें अवश्य हैं, जिन्हें यदि यह सम्मान दिया जाता है, तो इसकी गरिमा बढ़ेगी ही। साथ ही जिन लोगों को अब तक यह सम्मान मिला है, उनमें भी ऐसा कोई नहीं है जिस पर अंगुली उठाने की ज़रुरत किसी को पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व निर्विवाद है, तो अमिताभ बच्चन भी बार-बार पैदा नहीं होते। सचिन ने खेलने के यदि पैसे लिए थे, तो अब तक की  सम्मानित सूची में अवैतनिक कोई नहीं है।  जितना जिस काम से मिलने की  परम्परा है, उतना तो सभी को मिला ही है।  
लेकिन फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या "भारत-रत्न" चुन कर भुला देने के लिए हैं?
उनके रास्तों का अनुसरण हम क्यों नहीं कर रहे? उनमें ऐसे कितने हैं, जो आज हमारे आदर्श बने हुए हैं?कितने ऐसे हैं, जिनके बारे में, जिनके कार्यों के बारे में हमारी नई  पीढ़ी को बताने की  माकूल व्यवस्था की  गई है? जिन विभूतियों के अपने वारिस-परिजन आज असरदार हैं, उनका डंका तो सतत बज रहा है, पर उनका क्या हाल है, जिन्होंने जीतेजी देश के आगे अपनी खुद की, और अपने परिवार की सुध नहीं ली। लाल बहादुर शास्त्री, गुलज़ारी लाल नंदा, विनोबा भावे, आज कहाँ हैं?करोड़ों की ज़मीनों की  हेराफेरी करके कुर्सी से चिपके बैठे लोगों को ये मालूम भी  है कि "भूदान" आंदोलन क्या था?
मज़े की  बात ये है कि ऐसे ही लोग आज "भारत रत्न" बांटने वालों में शामिल हैं।      

Sunday, November 17, 2013

जिसका असबाब बिना बिका रह जाए वो सौदागर कैसा?

फेसबुक पर टहलते हुए आज एक विचार देखा।  कुछ लोग कह रहे थे कि क्या भारत में अब तक कोई साहित्यकार "भारत रत्न" हुआ है?
वैसे तो "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" जैसे ग्रन्थ लिखने वाले नेहरूजी को साहित्यकार की श्रेणी में भी माना ही जाना चाहिए,वैज्ञानिक व दार्शनिक साहित्य डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और ए पी जे अब्दुल कलाम साहब का भी उच्च कोटि का है, मगर यहाँ शायद बात हिंदी के उन रचनाकारों की  है, जो खालिस साहित्यकार के तौर पर ही प्रतिष्ठित हैं।  प्रेमचंद और शरतचंद्र जैसे।
लोग सचिन को "भारत रत्न" मिलने पर अन्य खेलों के स्टार खिलाड़ियों को भी याद कर रहे हैं। मिल्खा सिंह का नाम सबसे ऊपर दिखा।  राजनीति के मैली सोच के कुछ खिलाड़ी लताजी की  उपलब्धि को भी विवादास्पद बना देने पर आमादा हैं।
यहाँ एक बात की  अनदेखी नहीं की जा सकती।  सचिन या दूसरे क्रिकेटरों ने आज क्रिकेट को कहाँ पहुंचा दिया? मैच के दिनों में बच्चों से बूढ़ों तक टीवी से चिपके या स्कोर पूछते देखे जा सकते हैं।  यह कसौटी साहित्य पर लागू करके देखें, शायद कुछ स्थिति साफ़ हो।
हाँ,यह कसौटी अंतिम नहीं है।
रत्नों के इस खनन ने कई गुल खिलाए हैं।         

Saturday, November 16, 2013

सचिन

ईश्वर को याद करने के लिए आपको ढेर सारी आरतियाँ याद करके उन्हें गाना ज़रूरी नहीं है।
केवल "ॐ "कहने से भी आपकी आस्तिकता जग ज़ाहिर हो जाती है।  और यदि ईश्वर प्रार्थनाएं सुनता है तो आपकी यही गुहार प्रार्थना का काम कर देती है।
आइये अब सचिन की  बात करें।
सचिन को "भारत रत्न" मिल गया है।  डॉ. राव को भी।  दोनों के प्रति सम्मान सहित बधाई।
सचिन को जीवन में चुनौतियाँ ही मिलती रही हैं।  यह स्वाभाविक भी है।  बिना चुनौतियों का मुकाबला किये भला कोई सचिन कैसे बन सकता है।  यह तय है कि ज़िंदगी के सारे मुश्किल दाव खेलकर ही सचिन सचिन बने हैं।  इसलिए सचिन के लिए चुनौती कोई अहमियत नहीं रखती।
लेकिन, फिलहाल एक छोटी सी चुनौती अब भी उनके सामने है।
उन्हें "भारत रत्न" देने के लिए २६ जनवरी या उनके जन्मदिन जैसे किसी पावन-पवित्र और शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया गया है, उन्हें यह तमगा हड़बड़ी में माहौल भाँप  कर दिया गया है।  अब उन्हें देखना होगा कि कहीं उनसे इस सम्मान की  कीमत न मांगी जाय।  यदि इस समय वह किसी राजनैतिक पार्टी के पक्ष में मुंह खोलेंगे तो वह अपने करोड़ों प्रशंसकों और क्रिकेट का मान कम ही करेंगे।
यह आशंका केवल इसलिए ज़ाहिर की  जा रही है क्योंकि पिछले दिनों लता मंगेशकर के बटुए में हाथ डाल कर "भारत रत्न" निकालने का प्रयास करते हुए राजनीतिज्ञ देखे जा चुके हैं।
ईश्वर करे कि आशंकाएं निर्मूल साबित हों।
मेरी ये  ९०० वीं पोस्ट सचिन के बल्ले से निकली आँधियों को समर्पित !  

Thursday, November 14, 2013

सुर सागर से मांगी बेसुरी भीख

भारत का सबसे बड़ा सम्मान "भारत रत्न" किसे और क्यों दिया जाता है?
एक तथाकथित नेता की  मानें तो यह उनकी पार्टी की  तारीफ करने के लिए दिया जाता है।  भारत कोकिला "भारत रत्न" लताजी ने उनके दल के बजाय किसी अन्य दल के नेता की  तारीफ कर दी है। लिहाज़ा वे चाहते हैं कि लताजी अब यह सम्मान लौटा दें।
खैर, मैंने इस बात का ज़िक्र इसलिए नहीं किया कि यह मांग गम्भीर है, बल्कि इसलिए किया है कि हमारे मीडिया ने भी तवज्जो देकर यह खबर छाप दी है।  उम्मीद है कि मीडिया शायद उन महाशय को अब यह भी समझाने का प्रयास करेगा कि  "भारत रत्न" लताजी को हज़ारों सुरीले गीतों के माध्यम से संगीत और समाज की वर्षों तक अहर्निश सेवा करने के लिए दिया गया है, उनके मनचाहे दल या लोगों की  तारीफ करने के लिए नहीं।
वैसे भारत में नागरिकों को संविधान के तहत मिले मूल अधिकारों में 'अभिव्यक्ति की  स्वतन्त्रता' का अधिकार भी शामिल है, जिसका अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति अपने मन में आई बात को ज़ाहिर कर सकता है, इस दृष्टि से उन पर कोई रोक-टोक नहीं है- वे चाहें तो  आकाश से सूरज और चन्द्रमा को लौटाने की  मांग भी कर सकते हैं।      

Wednesday, November 13, 2013

क्या इस से डॉक्टर को असुविधा नहीं होगी?

एक बार कुछ युवकों ने एक पार्क में बैठकर शराब पी ली। संयोग से उनमें से एक को काफी नशा हो गया, और उसकी तबीयत भी बिगड़ने लगी। सभी मित्र घबरा गए।  नज़दीक ही एक मंदिर था।  युवक जानते थे, कि मंदिर में ईश्वर होता है जो इंसानों के कष्टों का निवारण किया करता है।  उन्होंने भी और कोई चारा न देख अपने साथी को मंदिर में ईश्वर की  शरण में ले जाने की  ठानी।  वे किसी तरह अपने मित्र को लेकर मंदिर के अहाते में पहुंचे।  मित्र की  आँखें नशे से लाल हो चली थीं, और वह रह-रह कर उल्टियां भी कर रहा था।  सभी युवक उसे सहारा देकर ईश्वर की  मूर्ति के समक्ष ले गए।  जल्दी और घबराहट के चलते युवकों को अपने मित्र के जूते उतारने का भी ध्यान न रहा।
भक्तों की  ऐसी मण्डली को देखकर पुजारी का माथा ठनका।  शराब के नशे में धुत्त युवक को देखते ही उसने क्रोधित होकर सभी को फटकारना शुरू किया और तुरंत बाहर निकल जाने का आदेश दिया।  युवकों के ज़िरह करने पर पुजारी ने कहा, अच्छा, तुम लोग आ सकते हो, मगर इस लड़के को बाहर निकालो, जिसने मंदिर को अपवित्र कर दिया है।
मित्र को अकेला न छोड़ वे सभी बाहर निकल कर मंदिर के मुख्य द्वार पर बैठ गए। कुछ समय बाद न जाने क्या हुआ कि अचानक पुजारी को ज़ोरदार दिल का दौरा पड़ा।  वह तड़पने लगा।
युवकों को उस पर दया आई, वे उठकर दौड़े और आनन-फानन में उसे उठाकर नज़दीक के एक अस्पताल में ले चले। पुजारी कृतज्ञ और विवश भाव से उन्हें देखता रहा।
जब वे अस्पताल के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो एक मित्र ने कहा- पुजारी जी को यहीं छोड़ देते हैं, हमलोग भीतर डॉक्टर के पास चलते हैं।  पुजारी ने पूरी ताकत लगा कर कातर दृष्टि से उन्हें देखा और धीमी आवाज़ में कहा- फिर मुझे देखे बिना डॉक्टर मेरा इलाज़ कैसे करेगा?
-लेकिन आपको भीतर लेजाने पर तो डॉक्टर को असुविधा होगी न, आप बीमार हैं, आपका बदन पसीने से लथपथ मैला है, इसमें से गंध भी आ रही होगी।
पुजारी लड़कों का आशय समझ गया।  वह बेहद लज्जित भी हुआ।  उसने पश्चाताप करते हुए, नशे से त्रस्त उस युवक को देखा, जिसकी तबीयत अब तक काफी सुधर चुकी थी।       

Friday, November 8, 2013

अच्छी खराब बात

आइये, एक अच्छी बात में खराबी ढूंढें -
श्री अशोक अनवाणी ने एक किताब लिखी है-"सुहिणी साधना", जिसका विमोचन मुम्बई में हुआ।  किताब "सिंधी"भाषा में है, जिसके विमोचन में साधना की  खास सहेली पुष्पा छुगाणी और कोशी लालवाणी उपस्थित थीं तथा लक्ष्मण दूबे, नामदेव ताराचन्दानी और बंशी खूबचंदानी ने पुस्तक की  तारीफ की। इस अवसर पर अहसान भाई, अंजू मोटवानी और टी मनवानी ने साधना पर फिल्माए गए गीत पेश किये।  पुस्तक में लेखक ने खुलासा किया है कि-
साधना फ़िल्म इंडस्ट्री की  प्रथम फ़ैशन आइकॉन थीं-[साधना-कट बाल(फ़िल्म वक्त ) चूड़ीदार पायजामा और कुरता(फ़िल्म मेरे मेहबूब ) उन्हीं की  देन  हैं]
वे फिल्मों की  फर्स्ट यंग एंग्री वूमेन हैं [ फ़िल्म इंतकाम ]
फिल्मों का पहला पॉपुलर आयटम गीत [ झुमका गिरा रे, फ़िल्म मेरा साया] उन्हीं के नाम है।
महिला अभिनीत सर्वाधिक लोकप्रिय दोहरी भूमिका[ चार फिल्मों में] सबसे पहले उन्होंने की।
रहस्यमयी प्रेम को परदे पर उतारने का उनका फ़न आज तक बेमिसाल है।
वे राजेश खन्ना से भी पहले सुपर [महिला ]स्टार बन चुकी थीं।
इन तमाम अच्छी बातों में यह भी जोड़ लीजिये कि सरकार ने उन पर लिखी किताब के प्रकाशन के लिए आर्थिक अनुदान दिया।  साथ ही कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने, जिनमें बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग लोग शामिल हैं, उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण सम्मान से नवाज़े जाने की  ख्वाहिश ज़ाहिर की।

अच्छा अब आपको इस तमाम प्रकरण में कहीं कोई ख़राब बात भी नज़र आती है?
"हिंदी फिल्मों" की  इस बेमिसाल सुपरस्टार अभिनेत्री के लिए ये सारे प्रयास सिंधी समाज ने किये, हिंदी समाज ने नहीं।
{साधना की  फ़िल्में- लव इन शिमला, प्रेमपत्र, परख, दूल्हा दुल्हन, असली नकली,मनमौजी,एक मुसाफिर एक हसीना, वो कौन थी, वक्त, मेरे मेहबूब, आरज़ू, राजकुमार, हम दोनों, ग़बन, मेरा साया, एक फूल दो माली, इंतकाम, अनीता, बदतमीज़, सच्चाई, छोटे सरकार,महफ़िल, इश्क़ पर ज़ोर नहीं, गीता मेरा नाम, आप आये बहार आई, दिल दौलत और दुनिया, हम सब चोर हैं , अमानत}        

Thursday, November 7, 2013

"यादें" कहते किसे हैं?

यादों की  फितरत  बहुत अजीब है। किसी को यादें उल्लास से भर देती हैं।  किसी को ये दुःख में डुबो भी देती हैं। आखिर यादें हैं क्या?
हमारे मस्तिष्क के स्क्रीन पर, हमारे मन में बैठा ऑपरेटर किसी ऐसी फ़िल्म को, जिसमें हम भी अभिनेता या दर्शक थे, "बैक डेट" से इस तरह चला देता है कि इस दोबारा शुरू हुए बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को हम दोनों हाथों से समेटने लग जाते हैं।  ये बात अलग है कि इस आमदनी में हमें कभी खोटे सिक्के हाथ आते हैं और कभी नकली नोट। फिर हम मन मसोस कर रह जाते हैं, और हमें इस सत्य का अहसास होता है कि एक टिकट से दो बार फ़िल्म नहीं देखी जा सकती।
आइये, यादों की कुछ विशेषताएं और जानें- 
१. उन व्यक्तियों से सम्बंधित यादें हमारे ज़ेहन में ज्यादा अवतरित होती हैं, जिन्हें हम दिल से पसंद करते हैं, अथवा जिनसे हम ज्यादा भयभीत होते हैं।
२. यादें हमारे चेहरे पर ज्यादा उम्रदराज़ होने का भाव लाती हैं, क्योंकि हम "जिए" हुए को दुबारा जीने की छद्म   चालाकी जो करते हैं। एक जीवन में किसी क्षण को दो बार या बार- बार जीने की  सुविधा मुफ्त में थोड़े ही मिलेगी।
३. जब हम किसी को याद करते हैं, तो सृष्टि अपने बूते भर हलचल उस व्यक्ति के इर्द-गिर्द मचाने की  कोशिश ज़रूर करती है, जिसे हम याद कर रहे हैं। 
४. हम यादों के द्वारा उस बात या व्यक्ति के प्रति अपना लगाव बढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं, जिसे हम  याद कर रहे हैं, पर वास्तव में हम  लगाव कम कर रहे होते हैं।  
५.किसी बात या व्यक्ति को बार-बार याद करके हम  अपने दिल के रिकॉर्डिंग सिस्टम को खराब कर लेते हैं।
 ६.गुज़रे समय को फिर खंगालना हमारी अपने प्रति क्रूरता है। इस से बचने की  कोशिश होनी चाहिए।                

Wednesday, November 6, 2013

मित्रता और उम्र

इस बात को लेकर लोगों में अलग-अलग मत प्रचलित हैं कि दोस्ती हमउम्र लोगों से की जाए या किसी भी आयु के लोगों से।  कुछ लोग यह मानते हैं कि यदि मित्र लगभग समान आयु के हों तो दोस्ती ज्यादा सहज, टिकाऊ और तनाव रहित होती है।  लेकिन यह धारणा भी प्रचलित है कि समान आयु के दोस्तों में तुलना, ईर्ष्या, उदासीनता आदि भी ज्यादा दिखाई देती है।
मुझे लगता है कि मित्र बनाते वक्त हम इस बात पर भी ध्यान दें,कि हम किसी को दोस्त क्यों बना रहे हैं? यदि मित्रता के हमारे मकसद ऐसे हैं, तो फिर अपनी उम्र के लोगों पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए, जैसे-
-हमें ज्यादा समय साथ गुज़ारने के लिए साथी चाहिए।
-हमें पारिवारिक सलाहकार के रूप में एक मित्र की  दरकार  है।
-हम लम्बे समय की  दोस्ती करने जा रहे हैं।
-हमारा मित्र हमारे परिवार और अन्य मित्रों से भी मिलता रहने वाला है।
किन्तु यदि हमारी दोस्ती के कारण इन कारणों से इतर हैं, जैसे-
-हमारे किसी खास शौक़ ने हमें दोस्त बनाया है।
-हमारी कोई महत्वाकांक्षा नए दोस्त के सहयोग से पूरी होने जा रही है।
-हमारे बीच अकस्मात सहयोगी कोमल भावनाएं पनप गई हैं।
-हमारी सीमित वैचारिकता किसी वरिष्ठ परामर्शक मित्र का साथ चाहती है।
-हमारी बीतती उम्र किसी ताज़गी की  मोहताज़ है।
तब हमें उम्र की  परवाह किये बिना दोस्त बनाने होंगे।  किन्तु यह ध्यान रखिये कि यह दूसरे प्रकार की मित्रता अपेक्षाकृत एकान्तिक होगी, आपके यह मित्र आपके दायरे में केवल आपके ही मित्र होंगे, आपके अन्य मित्रों व संबंधियों के मित्र नहीं।  इसी तरह आपको भी इनके दायरे के अन्य लोग आसानी से नहीं मिलेंगे। आपको इन मित्रों से अपनी मित्रता का औचित्य समय-समय पर सिद्ध करने के लिए भी सजग रहना होगा।  अन्यथा आपकी मित्रता को संदेह से भी देखा जाने लगेगा।
लेकिन एक बात तय है- इस मित्रता में मिठास भी ज्यादा होगी और संतुष्टि भी।              
  

ताज बड़ा कि सिर ?

आजकल देश बहुत छोटे होते हैं, चाहे उनकी आबादी अरबों में हो।  यदि आपको यकीन न हो तो खेलों के समाचार सुन लीजिये, खेल-खेल में हो जायेगा - दूध का दूध और पानी का पानी।
एक खिलाड़ी हारा नहीं, कि खबर आएगी-"देश धराशाई"
खैर, यह तो मीडिया का अति उत्साह है, जो खिलाड़ी में देश देख लेता है।
आज बात एक दूसरे खेल की  है।  सृष्टि राणा  "मिस एशिया पैसिफिक" बनीं।  यह सम्मान पिछली सदी में दो भारतीय सुंदरियों को मिला था- ज़ीनत अमान और दीया  मिर्ज़ा को।  इस नई सदी में तेरह वर्ष बाद किसी भारतीय बाला ने यह गौरव हासिल किया।
आइये देखें, कि एशिया स्तर की स्पर्धा में देश का परचम लहरा कर आने वाली इस युवती का स्वागत विमान तल पर किस तरह हुआ। किसी ने यह नहीं कहा कि भारत के आगे एशिया चित्त।  बल्कि यह कहा गया- 
"मुम्बई हवाई अड्डे पर सृष्टि राणा का ताज़ ज़प्त" 
यह बहुत ख़ुशी की  बात है कि हमारे अधिकारी नियमों और क़ानून के लिए बेहद सजग हैं।  उन्होंने साफ़ कह दिया कि सृष्टि ताज़ में लगे हीरों की  कस्टम ड्यूटी चुकाएं और ताज़ ले जाएँ।
तो अब हमारे क्रिकेट खिलाड़ी भी यदि कहीं से जीत कर लौटें,और विजेता ट्रॉफ़ी में कोई हीरा-जवाहरात जड़ा हो तो सावधान रहें। वे यह न कहें कि हमारा स्वागत करने मालाएं लेकर कोई नहीं आया। बल्कि यह सुनिश्चित करें कि कस्टम ड्यूटी लेकर कौन आ रहा है।
हाँ, अगर उन्हें कभी इस तरह की  समस्या नहीं आती तो फिर मामला हमारा-आपका नहीं है, यह तो 'महिला आयोगों' का है।   

Monday, November 4, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी- भाग पाँच ]

लड़के ने जेब से जब मोबाइल फ़ोन निकाल कर अपनी नई सी दिखने वाली रंगीन बनियान की  जेब में घुसाया तो दादाजी से रहा न गया, बोले - "कितना देते हैं तुझे?"
लड़का समझ गया कि दादाजी के दिमाग में कोई और कीड़ा कुलबुलाने लगा है, बात का बतंगड़ न बनने देने की गरज़ से लड़का बोला- "घर में इतने लोग हैं, सब कुछ न कुछ देते रहते हैं, अपना ये पुराना मोबाइल तो मालिक की  छोटी बेटी ने कुछ दिन पहले ही दिया था ।"
दादाजी ने अपने जवान पोते के कसरती से दीखते शरीर पर नज़र डाली तो उन्हें अपने घर की शाश्वत गरीबी   याद आ गई।
दादाजी का मन कमरे से निकल कर बाग़ में विचरने लगा।  आखिर उस बाग़ की मिट्टी उनके पसीने से ही तो नम हुई थी। दादाजी को लगता था कि बगीचे के पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे  में उनका इतिहास बिखरा पड़ा है।  अपने दिन-रात, अपनी जवानी-बुढ़ापा, अपने सुख-दुःख, अपने घर-परिवार, सब को मीड़ मसोस कर वह धूल की  तरह इस ज़मीन पर छिटका गए और बदले में ले गए ज़िंदगी गंवाने का सर्टिफिकेट। और आज उनकी ज़िंदगी-भर की  फसल पर भोगी इल्लियां लग गई हैं, उनका इतिहास कोई खा रहा है।
कमरे का दरवाजा भेड़ कर पोते ने अपने सफ़ेद झक्क जूते पहने तो दादाजी भी जाने के लिए कसमसाने लगे।  मालिक लोगों का क्या भरोसा, रात तक न आयें।
लड़का बंगले के मेन गेट तक दादाजी को छोड़ने आया, और बाहर की  सड़क पर दादाजी को एक दूकान में घुसा देख कर वहीँ खड़ा हो गया।  दवा की दूकान थी।लड़के को अचम्भा हुआ- दादाजी बीमार हैं? उन्होंने बताया क्यों नहीं।
लड़का उनसे कुछ पूछ पाता इस से पहले ही वह दूकान से पैसे देकर वापस पलट लिए।  उन्होंने एक छोटा सा पैकेट लड़के को पकड़ाया तो लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया।  दादाजी बोल पड़े- "बेटा, आजकल तरह-तरह की  बीमारियां फ़ैल रही हैं, तू यहाँ परदेस में किसी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
लड़के को संकोच से गढ़ा देख दादाजी एक बार फिर चहके- "सोच क्या रहा है, रखले, दादा हूँ तेरा!"[समाप्त]           

Sunday, November 3, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी-भाग चार]

दादाजी  को कमरे की खिड़की से एक बूढ़ा-ठठरा सा सूखा पेड़ दिखा तो वे जैसे उमड़ पड़े  - "देख, देख ये रहा वो पेड़।  इसमें जब पहली बार फल आया, तो उस बरस मुझे होली पर घर जाने का ख्याल छोड़ना पड़ा, मेरे पीछे कोई छोड़ता फलों को? फिर जब मैं घर नहीं जा सका तो गाँव से तेरी दादी ने दो सेर जौ और गुड़ की  डली किसी के हाथों मेरे लिए भिजवाई।"
लड़के को ये सब बेतुका सा लग रहा था। उसके कमरे में पड़े पुराने सोफे पर अखबार में लिपटा वो आधा पिज़्ज़ा अब तक पड़ा था जो सुबह नाश्ते के समय मालकिन ने खुद  उसे पकड़ा दिया था। बूढ़े की आँखों को किसी डबडबाये बजरे की  तरह डोलता देख उसका पोता उसे ये भी नहीं बता सका कि उसे हर दो-चार दिन में डायनिंग टेबल पर बची मछली के साथ जूस का डिब्बा जब-तब मिल जाया करता है।
लेकिन लड़के को अपने स्कूल का वो मास्टर ज़रूर याद आ गया जो कहा करता था कि किसी को रोज़ मछली परोसने से बेहतर है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये।  लड़का अपने दादा की  पेशानी की  झुर्रियां देख कर सोचने लगा कि ये सलवटें शायद मछलियां पकड़ते रहने का ही नतीजा हैं।
दादाजी  जब-तब चहक उठते  -"ये तेरी मालकिन जब बहू बन कर इस घर में आई थी तो साल भर तक हम इसे देख ही नहीं सके, हमें चाय पानी तो डालते थे कोठी के बावर्ची, और खुरपी कुदाल निकाल कर देते थे नौकर।  हाँ आते-जाते मोटर के शीशे से घर के बाल-बच्चों की  झलक ज़रूर छटे-छमाहे दिख जाती थी।"
बदले में लड़के को चुप रह जाना पड़ता।  उसके पास कुछ था ही नहीं बोलने को।  उसे कभी कहीं गड्ढा नहीं खोदना पड़ा,बुवाई-रोपाई-गुढ़ाई तो नर्सरी का आदमी सब कर ही जाता था।  दिन भर स्प्रिंक्लर चलते रहते, पानी के फव्वारे छोड़ते। हाँ, छोटी और मझली बेटियां तो हर काम के लिए पैसे ऐसे पकड़ाती हैं, कि देखने की  कौन कहे, हाथ कई बार छू तक जाता है, पर अब ये सब क्या दादाजी को बताने वाली बात है?
पोते की  युगांतरकारी चुप्पी से खीज कर दादा ही फिर बोल पड़ा- "टोकरे के टोकरे उतरते थे पेड़ों से, पूरी बस्ती में बँटते, घर में भी महीनों खाये जाते थे।"
अबकी बार लड़के के तरकश में भी एकाध तीर निकला, बोला-"ये सब नहीं खाते, सब इम्पोर्टेड फल आते हैं मॉल से।  [जारी]            

Saturday, November 2, 2013

इतिहास भक्षी [कहानी -भाग तीन]

बहुत दिन बाद अपने किसी परिजन को देखने का उत्साह लड़के की  सोच से अब धीरे-धीरे ओझल होने लगा था।  लेकिन उसकी उदासीनता ने दादाजी का उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं किया था।  वह अब भी उसी तरह चहक रहे थे।  मानो उन्होंने वहाँ काम करते हुए अपना पसीना नहीं बहाया हो, बल्कि बदन पर चढ़े उम्र की चांदी के वर्क मिट्टी  को भेंट किये हों।
चलते चलते दोनों पिछवाड़े के उस कमरे में आ गए जो अब नए माली, दादाजी के पोते, अर्थात उस कल के लड़के को रहने के लिए दिया गया था।  दादाजी को थोड़ी हैरानी हुई। -" तुझे कमरा? मैं गर्मी- सर्दी- बरसात उस पेड़ के नीचे बांस के एक झिंगले से खटोले पर सोता था।  कभी-कभी तेज़ बारिश आने पर तो वह भी चौकीदार के साथ सांझा करना पड़ता था।"
कमरे की  दीवार पर एक खूँटी पर दो-तीन ज़ींस टँगी देख कर दादाजी अचम्भे से पोते को देखने लगे-"और कौन है यहाँ तेरे साथ?"
कोई नहीं, मेरे ही कपड़े हैं।  लड़के ने लापरवाही से कहा।  दादाजी ने एक बार झुक कर अपनी घुटनों के ऊपर तक चढ़ी मटमैली झीनी धोती को देखा, पर उनसे रहा नहीं गया- "क्यों रे, ये चुस्त विलायती कपड़े पहन कर तो तू पौधों की निराई-गुड़ाई क्या कर पाता होगा?"
लड़के को मानो उनकी बात ही समझ में नहीं आई।  फिर भी बुदबुदा कर बोला-"वो तो नर्सरी वाले कर के ही जाते हैं।  बीज-पौधे तो वो ही लगाते हैं।"यह सुन कर दादाजी थोड़े अन्यमनस्क हुए।
लड़के ने एक चमकदार शीशे की  बोतल से दादाजी को पानी पिलाया।  दादाजी हैरान हुए-"बेटा, मालिकों की  चीज़ें बिना पूछे नहीं छूनी चाहिए।"
अब हैरान होने की  बारी लड़के की थी। वह उसी चिकने सपाट चेहरे से बोला-"ये सब मालिक ने ही तो दिया है।" [जारी]         

इतिहास भक्षी [कहानी-भाग दो]

मालिक लोग तो अभी बंगले में थे नहीं, पोता अपने दादा को कंधे का सहारा देकर बाग़ में घुमा रहा था। बूढ़ा अपनी पुरानी स्मृतियों की फटी बोरी से टपकती यादों को समेटता बता रहा था कि कहाँ-कहाँ के झाड़-झंखाड़ को हटा कर उसने वटवृक्ष खड़े कर दिए, कैसे मौसमों की मार से लोहा ले-ले कर उसने गुल खिलाये।
पचास साल बहुत होते हैं, आदमी की  तो बिसात क्या, इतने में तो मुल्कों के नाम और दर्शन बदल जाते हैं।  बूढ़े के पास एक-एक बित्ते की  उसके हाथों हुई काया-पलट का पूरा लेखा-जोखा था मगर इस बात का कोई जमा-जोड़ नहीं था कि इस सारी उखाड़-पछाड़ में उसकी अपनी ज़िंदगी का क्या हुआ? उसकी अपनी उम्र की  काया कैसे और कब मिट्टी हो गई।
शायद जवान पोते पर उसकी बात का कोई ख़ास असर न पड़ने का यही कारण रहा हो।लड़का दादा की  बातें सुन-सुन कर शाश्वत खेल के किसी अगले खिलाड़ी की  तरह अपने भविष्य की  चौसर बिछाने में अपने मन को उलझाये था।
वह गांव में कुछ बरस स्कूल भी गया था।  उसे किताब-कापी-मास्टर-बस्ता और घंटी की  धुंधली सी याद भी थी।  वहाँ उसे बताया गया था कि बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, और ज्ञान के सरोवर के किनारे बैठ कर तो कठौती में गंगा भी समा जाती है।  पर उसके अतीत में कुछ नहीं समाया।  समाये तो केवल यार-दोस्तों के संग लगाए गए बीड़ी के कश ,गुटखों की पीक, मास्टर के थप्पड़ और ये स्कूल के अहाते से थपेड़े खिला कर बंगले के बगीचे में घास खोदने को छोड़ गया मटमैला अंधड़।
दादा ने पोते को बताया कि उसे यहाँ पूरे चौदह रूपये महीने के मिला करते थे और वह गांव,दादी,परिवार सब को  भूल कर पूरी मुस्तैदी से तन-मन लगाकर सहरा को नखलिस्तान बनाने में लगा रहता था, अर्थात बगीचे को गुलज़ार कर देने के सपने देखा करता था।[जारी]    
        

इतिहास-भक्षी [ कहानी-भाग एक]

नब्बे साल की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई।  लाठी थामे चल रहे हाथों का कंपकपाना कुछ कम हो गया।
… वो उधर , वो  वो भी, वो वाला भी... और वो पूरी की पूरी कतार  … कह कर जब बूढ़ा खिसियानी सी हँसी हँसा तो पोपले मुंह के चौबारे में एकछत्र राज्य करता वह कत्थई-पीला,बेतहाशा नुकीला,कुदालनुमा अकेला दांत फरफरा उठा।  थूक के दो-चार छींटे उड़े।
लड़के ने कान के पास मक्खी उड़ाने की  तरह हाथ पंखे सा झला, फिर सामने देखने लगा।
बूढ़ा उस उन्नीस-बीस साल के लड़के का दादा था।
दूर के किसी गाँव का रहने वाला वह लड़का उस लम्बे-चौड़े महलनुमा बंगले में छह महीने पहले ही माली के काम पर लगा था।  और इसी बंगले में इसी काम पर लड़के का दादा उस से पहले लगभग पचास बरस से काम करता रहा था।  आधी सदी के इस सेवक की  हड्डी-पसलियों और नित बुझती आँखों ने जब उसे जिस्म से रिटायर करने की  धमकी दी, तभी मालिकों ने उसे बगीचे की  मालियत से भी रिटायर कर दिया।
पर आधी सदी की  चाकरी बेकार नहीं गई।  बूढ़ा मिन्नतें कर-कर के अपनी जगह अपने पोते को काम पर रखवा गया था।  इसीलिए आज जब किसी आते-जाते के साथ बूढ़ा अपने पोते की खोज-खबर लेने और अपने पुराने  मालिकों की देहरी पूजने यहाँ आया तो पोते का कन्धा पकड़ उस विराट बगीचे को निहारने भी चला आया, जहाँ अपना तन-मन लेकर वह एड़ी से चोटी तक खर्च हुआ था।
और बस, अपने पोते को अपनी उपलब्धियां दिखाते-बताते वह बुरी तरह उत्तेजित हो गया।  उसने कौन सी जमीन की  कैसे काया पलट की , कौन-कौन से बिरवे रोपे, कौन से फूल से कैसे मालिक-मालकिन का दिल जीता,और कहाँ की  मिट्टी में उसका कितना पसीना दफ़न है, सब वह अपने पोते को बताने में मशगूल हो गया।  पोते का मुंह वैसे का वैसा ही चिकना-सपाट बना रहा।  [जारी]      

Saturday, October 19, 2013

आप क्या ढूंढते हैं लफ़्ज़ों में ?

जब हम कहीं भी कुछ पढ़ते हैं, तो दरअसल हम क्या ढूंढते हैं? आइये इस पर हुई एक शोध के नतीजे देखें-
१. लगभग ७६ प्रतिशत लोग यह देखने में दिलचस्पी रखते हैं, कि दुनिया में ऐसा क्या है, तो अब तक हमने नहीं देखा। इसे हम कह सकते हैं लफ़्ज़ों की हवा!
२. लगभग १२ प्रतिशत पाठक शब्दों पे चढ़ा मांस देखते हैं.
३. दुनिया भर के ३ प्रतिशत लोग छपे शब्द पर धूल के कण देख कर उलझ जाते हैं।
४. जी हाँ, ८ प्रतिशत लोगों की दिलचस्पी पनीले शब्दों में है, अर्थात वे देखते हैं कि  इनमें कितना पानी है?
५. बाकी बचे १ प्रतिशत शब्दों के रंग पर चकित हो जाते हैं।
लिखने वालों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि  वे हवा, मांस, धूल,पानी और रंग मिला कर पाठकों को क्या-क्या परोस सकते हैं!   

Friday, October 18, 2013

शोर

आज अचानक मनोज कुमार की फिल्म "शोर" का ख्याल आ गया। उसमें मनोज कुमार ने बताया था कि  आवाज़ का आना और जाना क्या होता है.
पिछले कुछ समय से ज़रा से तकनीकी कारण से आपसे बातचीत बंद हो जाने से मुझे भी कुछ-कुछ वैसा ही लग रहा था।  केवल आज का समय और दीजिये, कल हम बातें करेंगे।   

Sunday, September 8, 2013

अच्छा होता है करवट बदलना

एक लड़का सो रहा था. नींद में उसे सपने आने लगे. उसने देखा कि  वह सपने में अपने पिता को देख रहा है. कुछ ही देर में उसने देखा कि  उसके पिता अपने पिता से बातें कर रहे हैं. दो वरिष्ठ जनों को बातें करते देख उसने बीच में व्यवधान डालना उचित नहीं समझा, और वह चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा. उसे सुनाई पड़ा कि  उसके दादा [पिता के पिता] अपने पुत्र को अपने पिता की तस्वीर दिखा रहे हैं, जिसमें पिता अपने पिता के साथ खड़े हैं. लड़के की रूचि धीरे-धीरे इस सपने में कम होती गई. उसे इतनी दूर के रिश्तेदारों के बारे में जानने की कोई जिज्ञासा नहीं थी.
लड़के ने नींद में कसमसा कर करवट बदल ली. लड़के ने करवट बदली थी, उसकी नींद उचाट नहीं हुई थी. अतः वह पूर्ववत सोता रहा. गहरी नींद में उसे फिर से सपना दिखने लगा. इस बार सपने में वह एक अजीबो-गरीब मंजर देखने लगा. उसने देखा कि  एक सुन्दर सी झील के किनारे हरी-भरी घास में एक सुन्दर सा बालक खेल रहा है. वह बालक की ओर  बढ़ा. उसने देखा कि  बालक के हाथों में एक मनमोहक खिलौना है. उससे रहा न गया. उसने छिप कर देखना चाहा कि बालक उस खिलौने का क्या करता है. क्या वह उसे तोड़ देगा, उसे झील के पानी में फेंक देगा या फिर उसे संभाल कर अपने पास रखेगा। उसने देखा कि  बालक ने खिलौने को जैसे ही ज़मीन पर रखा, वह खिलौना भी जीवित हो गया और किसी नवजात बालक की भाँति किलकारियां भरने लगा.
लड़के को सपने में आनंद आने लगा, और उसकी नींद इस प्रत्याशा में और गहरी हो गई कि  सपना न टूटे। उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि  सपने में दिखा बालक और बालक के हाथ का खिलौना उसके लिए कितना अजनबी या कितना नजदीकी है.    

Friday, September 6, 2013

थोड़ा समय लगेगा अनुराग शर्मा का निर्देश पूरा करने में

पिट्सबर्ग से अनुराग जी ने जब लिखा कि  उनकी तो कई बार टिप्पणी लिखने तक की इच्छा नहीं होती, तो बात की गंभीरता समझ में आई. मुझे लगा कि  आलस्य छोड़ देना चाहिए और सिरे से सोचना चाहिए कि  रूपये की तरह शब्दों का अवमूल्यन भी हो रहा है. कहीं हम सचमुच "ऑप्शंस" क्लिक करने के ही अभ्यस्त तो नहीं रह जायेंगे?
किसी मच्छर भगाने वाली डिवाइस की तरह ही हमें अपनी अन्यमनस्कता को उड़ाने के जतन भी करने होंगे।एक छोटा सा काम तो हम ये करें कि  कुछ देर के लिए अपने को चीर लें. अपनी सुविधा से एक टुकड़े को हम अपने लिए मान लें, और बचे हुए दूसरे को हम अपने समय की सार्वभौमिक सत्ता का सार्वजनिक हिमायती स्वीकार करें। बस हमारा काम हो गया. अब हम खामोश रह ही नहीं सकते। हमारी तटस्थता खुद हमें ही चुभने लगेगी। हम बोलने लगेंगे। हमारी आवाज़ किसी गर्भवती कबूतरी की गुटरगूं के मानिंद शुरू होगी और हम जल्दी ही आम के बगीचे का कोई पपीहा हो जायेंगे। हम अपने कानों में ही बजने लगेंगे। हमारी यही गमक हमारी बिगड़ी बनाएगी। हम अपनी खोट के हाथों बिकने से बच जायेंगे। हमारा मोल भी चढ़ेगा।
इंशा अल्लाह हम लिखने लगेंगे!   

Wednesday, September 4, 2013

हरे पत्तों की हिना पिस के जब लाल हुई

रंगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक ओर तो समुद्र के गहरे तल में पानी के भीतर जल-रंगों से चित्रकारी हो रही है, दूसरी ओर  पीली आग से आसमान काला हो रहा है.
हम ऐसा कोई ढूंढ सकते हैं, जिसे हम अपने से ज्यादा स्नेह कर सकें। इस तलाश में न तो जाति का सिद्धांत काम देगा, और न धर्म का. इसमें स्वयं अपने को ढूंढ लेने पर भी पाबंदी नहीं होगी।
किसी ने सही कहा है -"हरे पत्तों की हिना पिस के जब लाल हुई, तब कहा लोगों ने, हाथ अब हुए पीले"
एक नीबू कई लोगों के दांत खट्टे कर सकता है. आसाराम को गिरफ्तार क्यों किया, आसाराम को गिरफ्तार क्यों नहीं किया,आसाराम को जेल में विशिष्ट क्यों समझा जा रहा है, आसाराम पर बिना जांच पूरी हुए ज़ुल्म क्यों ढाये जा रहे हैं?

Monday, September 2, 2013

ढोल

कहते हैं दूर के ढोल सुहावने होते हैं. लेकिन कभी-कभी पास के ढोल भी सुहावने लगते हैं. वैसे "सुहावने" की कोई स्पष्ट परिभाषा भी नहीं है. किसी को कर्कश लगने वाले ढोल किसी दूसरे  को सुहाने भी लग सकते हैं. यह भी कहा जाता है कि  सुर में बजने वाले ढोल, चाहे दूर हों या पास, सुहाने लगते हैं.
एक बार एक राजा ने अपने महल के आँगन में एक ढोल रखवा दिया। कहा गया कि  इसे कभी भी, कोई भी आकर बजा सकता है. बस इतनी सी बात थी कि  यदि कभी ढोल की आवाज़ से राजा को गुस्सा आया तो ढोल बजाने वाले का सर काट दिया जायेगा, ऐसी शर्त रख दी गयी.
अब भला किसकी हिम्मत थी कि  ढोल को हाथ भी लगादे। ढोल ऐसे ही पड़ा रहा.
अब जनता भी कोई ऐसी-वैसी तो होती नहीं है, कोई न कोई जियाला तो निकल ही आता है जो हिम्मतवर हो. आखिर एक आदमी वहां भी ऐसा आ धमका। उसने आव देखा न ताव, एक डंडा हाथ में लेकर धमाधम ढोल बजाना शुरू कर दिया। वह खुद ही अपने ढोल की आवाज़ में इतना मगन हुआ कि  साथ में झूम-झूम कर नाचने भी लगा.
राजा ने अपने कक्ष की खिड़की से झांक कर देखा और हँसते-हँसते लोटपोट हो गया. अबतो आदमी रोज़ वहां चला आता और ढोल पीटने लगता। साथ में नाचता भी.
दरबारियों को ईर्ष्या हुई, सोचने लगे, राजा इसे कोई बड़ा ईनाम ज़रूर देगा। अगले दिन उन्होंने ढोल को राजा की खिड़की के एकदम नज़दीक रखवा दिया। उन्होंने सोचा-खिड़की के निकट होने से इसकी कानफोड़ू आवाज़ से राजा को ज़रूर गुस्सा आएगा और राजा इसकी छुट्टी कर देगा।
सचमुच ऐसा ही हुआ. राजा को गुस्सा आ गया. अब सारे नगर में चर्चा होने लगी कि  दूर के ढोल सुहावने। सब सोचने लगे राजा इसे सज़ा देगा। लेकिन राजा का गुस्सा आदमी पर नहीं, बल्कि दरबारियों पर उतरा, राजा ने सभी पर भारी जुर्माना लगाया। और आदमी को ईनाम दिया।   

Sunday, September 1, 2013

नए मित्रों का इंतज़ार और उनसे मिलने की बेसब्र ख़ुशी

मुझे कुछ नए मित्र मिल जाने का विश्वास हो चला है. इसका यह कारण कतई नहीं है कि पुराने मित्रों की गर्मजोशी में कोई कमी आ गई है.इस विश्वास का तो बस इतना सा कारण है कि  मुझे पिछले दिनों मेरे एक मित्र और शुभचिंतक ने कुछ जानकारी दी है.
यह जानकारी इतनी सी है कि  पटना,नांदेड़, जालंधर और कोटा में मेरी कुछ रचनाओं पर अलग-अलग भाषाओं में कुछ लोग अनुवाद कार्य कर रहे हैं. वे जल्दी ही मुझे कुछ ऐसे पाठकों से जोड़ देंगे जिन्होंने मुझे अब तक नहीं पढ़ा है. इन विभिन्न भाषा-भाषी नए पाठकों में से कुछ तो ऐसे ज़रूर निकलेंगे, जो मुझे पढ़ कर पसंद करेंगे, और शायद मुझसे संपर्क भी करें।कुछ शायद पसंद न करें, और आलोचना के लिए मुझसे संपर्क करें। दोनों ही स्थितियों में मुझे कुछ नए मित्र मिल जायेंगे।
एक बात मुझे समझ में नहीं आई. इन विद्वान अनुवादकों में एक ऐसे भी हैं, जिन्होंने ख़लील ज़िब्रान के बहुत से साहित्य का अनुवाद किया है, और अब वे मेरी कहानियों पर काम कर रहे हैं. क्या ऐसा भी होता है कि  कोई अंगूर खाने के बाद बेर खाने लगे?
जो भी हो, मुझे तो इंतज़ार है अपने संभावित नए दोस्तों का. रंग-बिरंगे मानस दोस्त, जिनमें कोई सराहेगा, कोई जिरह करेगा, कोई लानतें भेजेगा।   

Saturday, August 31, 2013

फिर एक भूल

ये किसी फिल्म का शीर्षक नहीं है. मैं सचमुच एक भूल का ही ज़िक्र कर रहा हूँ. किसी और की नहीं, खुद अपनी भूल.
मैं पिछले काफी दिनों से कुछ नहीं लिख सका. जब भी अपनी नई पोस्ट के बारे में सोचता तो यही लगता था कि  कुछ है ही नहीं लिखने को, तो क्या लिखूं? लेकिन फिर बैठे-बैठे लगा कि  यह मेरी भूल है. राजेंद्र यादव ने तो न लिखने के कारण बताने के लिए सात सौ पेज की किताब लिख दी थी.ऐसा कभी हो ही  नहीं सकता कि लिखने का कोई कारण न हो.
पहला कारण तो यही है, मुझे इसलिए लिखना चाहिए था कि अब तक मैंने जो भी लिखा है, वह ज़रूरी नहीं कि किसी कारण से ही हो. मैंने अकारण भी बहुत सा लिख दिया है.तो अब मेरे पास कोई ऐसा कारण  नहीं है कि अब न लिखूं।
दूसरे, मुझे इसलिए भी लिखना चाहिए था कि  बहुत से कारण हैं लिखने के.गिनाऊँ?
१. मैं लिख कर ही तो बता सकता था कि  मैं क्यों नहीं लिख पा रहा?
२. यदि मैं नहीं लिखता तो मुझे पढ़ना पड़ता। क्योंकि लिखे-पढ़े बिना बुद्धिजीवी बने रहना बड़ा मुश्किल है. और बुद्धिजीवी न होना तो और भी मुश्किल है. क्योंकि बुद्धिजीवी न होने पर तो हर बात पर टिप्पणी करनी पड़ती है. पढ़ने का मतलब है बुद्धिजीविता को और भी मुश्किल करना, क्योंकि आदमी दूसरों की सुनने में फ़िज़ूल वक्त गवाने से तो अपनी ही कुछ कहने का आनंद क्यों न ले?
अब मुझे लग रहा है कि कहीं मैं लिख कर तो कोई भूल नहीं कर रहा!        

Sunday, August 11, 2013

यकीन कीजिये इस बात पर

वैसे तिथि के अनुसार श्रावण शुक्ल सप्तमी को आने के कारण इस वर्ष तुलसी जयंती १३ अगस्त को है, पर तुलसी मानस संस्थान, जयपुर ने इसे ९ अगस्त को ही मनाया था. उन्होंने इस कार्यक्रम में मुझे भी निमंत्रित किया था. संयोग से निमंत्रण के साथ एक पत्र भी भेजा कि वे इस अवसर पर मुझे सम्मानित भी करेंगे।
मेरा कई बार का यह सिद्ध अनुभव है, कि यदि अपनी प्रशंसा में कोई भी बात अपने मित्रों को पहले बतादूँ तो वह किसी न किसी वज़ह से पूरी नहीं हो पाती है. शायद इसे ही दुनियादारी में लोग "नज़र" लग जाना कहते हैं. मैं किसी अंधविश्वास में यकीन नहीं करता पर मन ही मन सोचता रहा कि मैं यह बात किसी को नहीं बताउंगा कि  मेरा सम्मान हो रहा है.
संस्थान से आये पत्र में लिखा था कि  अपने इष्ट-मित्रों को भी अपने साथ कार्यक्रम में लेकर आयें। मैं दुविधा में था कि  बिना बताये मित्रों को कैसे साथ ले चलूँ। आखिर देर रात जब मुझे पूरा यकीन हो गया कि  अब कोई बाधा नहीं आएगी, और कार्यक्रम हो ही जायेगा, मैंने अपने कुछ मित्रों को मोबाइल के ज़रिये एस एम एस करके कार्यक्रम की सूचना देदी और साथ में चलने का अनुरोध भी कर दिया।
कार्यक्रम में कुछ ही समय था कि  मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. एक-एक करके मित्रों के फ़ोन आने लगे, कि  वे नहीं आ सकेंगे। कुछ-एक ने तो आशंका भी ज़ाहिर कर दी कि  अब कार्यक्रम भी शायद ही हो. मैंने मन ही मन सोचा कि  आज यदि मैं न जा सका तो मेरे मन में हमेशा के लिए अन्धविश्वास बनने से कोई नहीं रोक सकेगा कि  यदि अपना कोई राज मित्रों पर पहले ज़ाहिर करदो तो सफलता संदिग्ध हो जाती है. मैंने घनघोर बारिश में भी अकेले ही जाने का पक्का इरादा कर लिया।
भोजन किया और निकलने के लिए तैयार होने लगा. जिनकी मानसिकता सकारात्मक और वैज्ञानिक हो वे कृपया सोच लें कि  भोजन में ही ऐसा कुछ रहा होगा जिसने "रिएक्शन"किया और मेरा ऊपरी होंठ इस तरह सूज गया कि  आईने में अपनी शक्ल देख कर खुद मुझे भी  हंसी आने लगी. मैंने तो बहरहाल यही सोचा कि  कोई काम जब तक पूरा हो न जाए, मित्रों को सूचना नहीं दूंगा। 

Saturday, August 10, 2013

क्या उसने आपको भी सुनाया था ये किस्सा?

आज मुझे किसी ने एक किस्सा सुनाया। उनके घर की छत पर एक छोटा कमरा बना हुआ था. वे उस कमरे की भी छत पर टहल रहे थे.सहसा उन्होंने देखा कि  घर की दीवार के करीब से एक छोटी सी रौशनी [टॉर्च की भांति] गुजरती हुई ऊपर आकाश में चली गई. इसी के साथ ही हलकी सी ऐसी आवाज़ भी हुई जैसे किसी बच्चे ने कोई पटाखा चलाया हो. उन्होंने नीचे की ओर झांक कर देखने की कोशिश की. तभी नीचे से उनके भाई की आवाज़ आई- भैया, जल्दी नीचे आओ, दादीजी गुजर गईं.
उनकी दादी कई दिन से बीमार थीं और नीचे भीतर कमरे में लेटी हुईं थीं.
हो सकता है कि  सचमुच किसी बच्चे ने पटाखा ही चलाया हो और उसकी आवाज़ से दादी के प्राण निकल गए हों, साथ ही किसी ने सचमुच टॉर्च डाल कर छत पर देखा हो कि  भैया कहाँ हैं.
पर क्या ऐसा भी हो सकता है कि  न किसी ने पटाखा चलाया हो, और न किसी ने टॉर्च ही डाली हो?  

Monday, August 5, 2013

पेड़,पहाड़,आसमान,इन्द्रधनुष, पानी और अमेरिका

पानी के किनारे बादलों में छाये इन्द्रधनुष की एक फोटो आज अख़बारों में देखने को मिली। बेहद खूबसूरत पेड़ों के बीच पानी में इन्द्रधनुष का अक्स कुछ इस तरह पड़ा कि  सतरंगी गोला ही मानो धरती के गले का हार बन गया.
मेरी एक जिज्ञासा है. पेड़, पहाड़,आसमान,इन्द्रधनुष और पानी, ये सब तो नैसर्गिक हैं. इन्हें प्रकृति बनाती है. कभी भौतिक क्रियाओं से तो कभी रासायनिक क्रियाओं से.
तो फिर अमेरिका में खींचा गया वह फोटो इतना नयनाभिराम क्यों लग रहा था?उसे तो किसी भी जगह खींचे जाने पर उतना ही आकर्षक दिखना चाहिए था. शायद इसका इनमें से कोई कारण हो-
अमेरिका में प्रदूषण कम हो.
वहां की मिट्टी ज्यादा उर्वरा और वायु ज्यादा निर्मल हो.
जिस कैमरे से वह तस्वीर खींची गई हो वह तकनीकी रूप से बहुत भव्य हो.
जिस व्यक्ति ने फोटो खींचा हो, वह छायांकन का विशेषज्ञ हो.
मेरी आँखों पर अमेरिका की पट्टी पड़ी हो. 

Sunday, August 4, 2013

शब्द भी सहला देते हैं अतीत

अच्छा लगता है अपने अतीत से कभी-कभी खेलना। आज ऐसा ही हुआ.
लगभग बाइस साल पहले की बात है, मुझे एक बार महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर "चिपलूण"जाने का अवसर मिला। मैं पहले से कोई बुकिंग करवाए बिना अचानक गया था इसलिए जब ठहरने के लिए मैं कोई अच्छा सा होटल ढूँढने लगा तो मुझे एक होटल थोड़ा दूरी पर एकांत में मिला। जब मैं रिसेप्शन से औपचारिकता पूरी करके अपने कमरे में गया तो मैंने नोट किया कि  होटल में पूरा सन्नाटा है और दूर-दूर तक कोई नहीं है.
थोड़ी ही देर में दरवाज़े पर दस्तक हुई और एक तेरह-चौदह साल का लड़का आकर खड़ा हो गया. मैंने उससे आने का प्रयोजन पूछा तो वह बोला- "मैं आपसे बात करने आ गया, वैसे मुझे जाना है क्योंकि मेरी ड्यूटी है" मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मैं सोचने लगा कि  जब इसे ड्यूटी पर जाना है तो क्यों आया है,कोई काम होगा। मेरे पूछने पर वह बोला-"यहाँ सब लोग मराठी भाषा बोलते हैं, मैं मराठी नहीं जानता, इसलिए दिन भर चुपचाप रहता हूँ, आपको काउंटर पर हिंदी बोलते सुना इसलिए थोड़ी बात करने आ गया, वैसे मैं होटल में सफाई का काम करता हूँ."
मैंने दिन में कई बार उससे खूब बातें कीं.
आज मेरे ब्लॉग को चिपलूण में किसी ने खोला है.मैं जानता हूँ कि  बाइस साल पहले मिला वह अनपढ़ लड़का "ऑनलाइन" नहीं होगा पर वह मुझे याद आ गया,उसे शब्द शक्ति ने ही मुझसे जोड़ा था.        

Saturday, August 3, 2013

छोटे राज्य

भारत का एक और राज्य विभाजन के लिए तैयार है. "तैयार" कहने का अर्थ यह नहीं है कि  सब कुछ सबके मन-माफिक हो रहा है. वैसे इतिहास गवाह है कि  कोई राज्य किसी शासक की महत्वाकांक्षा के लिए ही बड़ा बनता है. प्रतापी राजा-महाराजा निरंतर युद्धरत रह कर अपने राज्य को बढ़ाते रहे हैं. यह कभी किसी ने नहीं सुना कि  दो राज्य आपस में प्रेम से गले मिल कर एक हो गए हों. अलबत्ता यह ज़रूर होता रहा कि  बाहर या भीतर से जोर आजमा कर किसी ने राज्य को तोड़ दिया.
कहा यह भी जाता है कि  छोटे राज्यों से विकास ज्यादा होता है.  बड़े राज्यों में केन्द्रीकरण हो जाता है, और सारी शक्ति सुदूर राजधानियों के चक्कर काटने में ही खर्च होती है.अब जनसँख्या का घनत्व भी तो इतना हो गया है कि  छोटे राज्य ही "मैनेजेबल" हैं. आज़ादी के बाद से अब तक जब जनसँख्या, महंगाई, बेकारी सब बढ़ी हो तो राज्यों की संख्या क्यों पीछे रहे?जब जनसँख्या चौगुनी हो गई हो तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्री, राजधानियां भी तो इसी अनुपात में बढ़ें।  लेकिन ऐसे में एक चुटकुला भी याद आ रहा है.
"पति ने जब नई-नवेली पत्नी के हाथ का बना खाना खाया तो तेज़ मिर्च के कारण उसकी आँखों में आंसू आ गए. पत्नी के पूछने पर पति ने दुल्हन का मन रखने के लिए कहा, कि  ये तो ख़ुशी के आंसू हैं, खाना तो बहुत अच्छा है.उत्साहित होकर पत्नी ने कहा-और दूं? तब पति बोला - नहीं-नहीं इससे ज्यादा ख़ुशी बर्दाश्त नहीं कर पाउँगा।"
तो छोटे राज्यों में होने वाले तेज़ विकास का मज़ा लूटने कल बुंदेलखंड, हरितखंड,मरुप्रदेश, मिथिलांचल, बोडोलैंड आदि-आदि न आ खड़े हों.    
    

Sunday, July 28, 2013

एक जैसे हैं बच्चे और देश

किसी देश और बच्चों में भी भला कोई समानता की बात हो सकती है?मुश्किल तो है, पर फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है कि कुछ बातों में ज़रूर ये दोनों एक सा व्यवहार करते हैं.
क्या आपने किसी पतंग उड़ाते बच्चे को देखा है? अनंत आसमान में उसकी पतंग होती है, उसके हाथ में पतंग की डोर. और तन्मय होकर वह अपनी पतंग के साथ सारे आकाश में विचरण करता है.फिर कुछ ही देर में उसे आसपास कोई और पतंग दिखाई देने लगती है, और वह उससे पेच लड़ाने की तैयारी करने लगता है. वह नहीं जानता कि उस दूसरी पतंग को कौन, कहाँ से उड़ा रहा है, वह पतंगबाज़ी में कितना सिद्धहस्त है, बस वह तो जंग की तैयारी  में लग जाता है.
यहाँ दो संभावनाएं हैं. या तो बच्चे की पतंग कट जायेगी या फिर वह दूसरे की पतंग काट देगा।यदि बच्चा पेच काटने में सफल हुआ तो बच्चे के उल्लास की कोई सीमा नहीं है, लेकिन यदि वह अपनी पतंग बचा नहीं सका, तो उसके भीतर तुरंत एक मंथन शुरू हो जाता है. वह मन ही मन इस बात पर विचार ज़रूर करता है कि उसकी शिकस्त का कारण क्या रहा?इतना ही नहीं, बल्कि मन ही मन वह इस उधेड़बुन में भी उलझ जाता है, कि शायद वह ऐसा करता तो वैसा होता, वैसा करता तो यूं हो जाता।
ठीक ऐसा ही कोई देश भी करता है. अपनी पतंग नहीं, अपने "जीवन-मूल्यों" को लेकर।जब वह विकास को लेकर किसी दूसरे देश से स्पर्धा में अपने मूल्यों को दाँव पर लगाता है तो उसका व्यवहार बच्चे वाला ही होता है.यहाँ ध्यान देने की बात इतनी है कि पतंग उड़ाने के शौक़ीन बच्चे के पास अमूमन दूसरी पतंग भी होती है, लेकिन "जीवन-मूल्य"किसी देश के पास इतने नहीं होते, अमीर देशों के पास भी नहीं।       

Wednesday, July 24, 2013

रंगों का पैमाना

अब कुदरत ने रंग कोई यूँही तो बनाये नहीं होंगे। ज़रूर हर रंग के पीछे कुछ न कुछ सोच होगी। आइये, अनुमान  लगाएँ कि प्रकृति ने कौन सा रंग रच कर क्या सोचा होगा।
कुदरत ने सोचा होगा कि अगर मिर्च हरी होगी तो पकने के बाद हरे पेड़ पर दिखेगी कैसे? बस, उसे लाल कर दिया होगा।
कुदरत अनुमान लगाना तो खूब जानती है, उसे पहले ही पता चल गया होगा कि बैंगन हम किसे कहेंगे। तो उसने उसे बैंगनी बनाना ही ठीक समझा।
प्रकृति ने मूली को देख कर कहा होगा, ये किस खेत की मूली है, इस पर क्या रंग खराब करना, इसे सफ़ेद ही रहने दो.
लेकिन यहीं कुदरत से एक भूल भी हो गयी. उसने इंसान के रंग भी अलग-अलग कर दिए.   

Tuesday, July 23, 2013

ये सब आपको डाँट रहे हैं

जब हम किसी भी कोलाहल से गुजरते हैं तो हमें सुनाई देने वाली आवाज़ों में बहुत सी आवाजें पशु-पक्षियों की भी होती हैं. जंगल में विचरने वाले छोटे-बड़े जीव, घरेलू पालतू जानवर, हवा में उड़ने वाले कीट-पतंगे,अथवा सड़क पर घूमते आवारा पशु, हमसे तरह-तरह से कुछ न कुछ कहते जान पड़ते हैं. कभी वे खुश होकर अपनी कोई उपलब्धि बता रहे होते हैं, तो कभी दुःख में डूबे अपनी आपबीती कह रहे होते हैं, कभी साथियों की शिकायत कर रहे होते हैं, तो कभी खालिस शरारत के मूड में हमें सता रहे होते हैं.
कभी गौर से सुनिए, आपको लगेगा कि गली के कुत्ते आपको डांट रहे हैं. चिड़िया ने खिड़की पर आकर शिकायत की है कि आपने डस्टिंग करते समय उसके लाये तिनके तितर-बितर कर दिए. कभी ताँगे में जुता घोड़ा आपसे कहता है कि सामान ज़रा कम लेकर चला करो, पीठ अकड़ गई बोझ से.कभी दूर जंगल से आवाज़ आती है कि वाह, आज क्या शिकार मिला, पेट तृप्त हो गया.
क्या आप राज़ की एक बात जानते हैं?
प्राणियों के ये ज़ज्बात हमारे अवचेतन में स्थाई रूप से दर्ज हो जाते हैं. कालांतर में यही  आवाजें हमारा "मूड" बनती हैं.
   

Saturday, July 20, 2013

डेट्रॉइट का मामला

 आज अखबारों में एक खबर थी कि  डेट्रॉइट ने दीवाले की पेशकश की है। यह खबर बिलकुल समझ में नहीं आई। यह पेशकश किसने, किस से, क्यों की है। इसका अर्थ क्या है। यदि यह कोई आर्थिक विफलता का मामला है, तो यह सार्वजानिक क्यों किया गया है? क्या इसकी ज़िम्मेदारी लेकर इसे देश आंतरिक रूप से नियंत्रित नहीं कर सकता?क्या ये खबर छवि सम्बन्धी कोई मसला नहीं उठाती?क्या किसी पूंजीवादी देश का हर शहर या प्रांत कोई अलग आर्थिक इकाई है?यदि यह सरकार पर संकट है, तो क्या इसका हल संभव नहीं है?
यदि सरकारी संपत्ति को बेच कर कर्जे चुकाए जाते हैं, तो क्या यह स्थाई उपाय है?यदि यह प्राथमिक उपचार है, और इसके बाद कोई अन्य प्रभावी कदम उठाया जाना है, तो क्या वह पहले ही नहीं उठा लिया जाना चाहिए?       

Tuesday, July 16, 2013

सप्तऋषि मंडल ज़मीन पर

कुछदिन से सुस्त-रफ़्तार रही दिनचर्या पर न जाने किस ग्रह-नक्षत्र की छाया पड़ी कि  अचानक बैठे-बैठे भारत के सात राज्यों की झलक एक दिन में ही  देखने को मिली। बहुत थोड़ी सी देर में भी यह सब जान-सुन कर अच्छा लगा कि -
राजस्थान भी रेगिस्तान की छवि खोकर हरा-भरा होता जा रहा है।
हरियाणा में एक दिन लोहा और मिट्टी बराबर तुलेंगे।
दिल्ली के विमानतल पर गत-वर्ष कुल इतने यात्री आये,जितनी ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या है।
उत्तरप्रदेश पिता-पुत्र शासकों की परंपरा अब भी निभा रहा है।
बिहार अभी दुश्मन-दोस्तों की वजह से और चर्चा में रहेगा।
झारखण्ड में पेड़ अब भी गाते हैं गीत।
ओडिशा इस्पात को सुरों के लिए इस्तेमाल करता है।
शायद शीर्षक इस तरह होना चाहिए था-"सप्त-ऋषि मंडल ज़मीन से"    

Thursday, July 11, 2013

एक अच्छी शाम

   किसी शाम को अच्छा या बुरा कहने की ज़रुरत नहीं होती। जाता सूरज भरसक सुहाने दृश्य देता ही है, बशर्ते बादल उसका रास्ता न रोकें। लेकिन कल की शाम सूरज और बादल ने खूबसूरत दृश्य देने में कोई कोताही नहीं की। वैसे भी ये एक विचार, मिलन और आत्मीयता की शाम थी।
मेरे उपन्यास "जल तू जलाल तू " का कल लोकार्पण था। बहुत सारे मित्रों, शुभचिंतकों, परिजनों और परिचितों को एक साथ देख कर बहुत अच्छा लगा। कुछ लोगों की बातें तो इतनी आकर्षक थीं कि  जिन्हें सुनने के लिए ही लिखने वालों का जन्म होता है। दूर-पास से जिनके ढेरों सन्देश मिले उन सबका शुक्रिया।
मैं सोच रहा था कि  यह कैसी अनोखी प्रक्रिया है कि  हम एक लेखनी के सहारे किसी के दिमाग के फर्श पर बिछायत करके आराम से बैठ जाते हैं, और फिर वह हमारी कहता है।
ये शाम इसलिए ही अच्छी नहीं थी कि  लोगों ने मीठी बात कही, बल्कि इसलिए भी अच्छी थी कि  लोग कहने-सुनने आये। वैसे भी शाम अच्छी होती ही है, क्योंकि ये दिनभर दफ्तरों और कार्यस्थलों में भिड़े रहे लोगों को वापस घर ले आती है, और दिनभर घरों में रहे लोगों को बाहर निकाल लाती है। फिर ये शाम उस रात की भूमिका भी तो बनाती है, जो ज़रूरी है सपने देखने के लिए।  

Monday, July 8, 2013

बरसात,बन्दर और बंद कमरा

ये अभी घटी ताज़ा बात है। ये सच भी है। आज दिनभर से बादल थे। शाम को जोर से बारिश आने लगी। शाम की बारिश कोई ज्यादा खुशनुमा नहीं होती। शाम को भी अगर आप घर के भीतर ही रहें तो दिन गुजरने का अहसास मंद सा पड़ जाता है।
मैं कमरे से बारिश देख रहा था। तभी मुझे बालकनी में एक बन्दर बैठा हुआ दिखाई दिया। वह भी कुछ भीगा हुआ था, और तेज़ बारिश को टकटकी लगाए देख रहा था। मैं उस बन्दर को बहुत ध्यान से देख रहा था। क्या आप बता सकते हैं कि  मैं बन्दर को देखते हुए क्या सोच रहा था ?
बन्दर हमारे पूर्वज हैं। हम पहले बन्दर थे, फिर रफ्ता-रफ्ता इंसान बन गए। अगर ये बन्दर भी कभी इंसान बन जाए, और एक दिन बैठ कर अपने ब्लॉग पर इस शाम, बारिश और मेरा ज़िक्र करे तो कितना मज़ा आये ?
बन्दर ये ज़रूर लिखेगा कि  मैं बंद कमरे में बैठा भी बारिश से खीज,और बन्दर से डर रहा था, जबकि बन्दर खुले में भी खुद को सुरक्षित समझते हुए बारिश का आनंद ले रहा था।
सच में पशु-पक्षी बिना ताम-झाम के भी कितने इत्मीनान से जी लेते हैं।बन्दर के पास कोई मेडिकल बीमा नहीं था, फिर भी वह भीग लिया। मेरे पास था, मेरे भीग कर बीमार पड़ने का खर्च सरकार दे देती, फिरभी मैंने बौछार को बाहर ही रोकने के लिए तुरंत खिड़की बंद कर दी।
बन्दर क्यों इंसान बने, हम क्यों न बन्दर बन जाएँ?   

Saturday, July 6, 2013

पड़ौसी

वे दोनों पड़ौसी थे, उन्हीं की तरह झगड़ पड़े। पहले बातों में तू-तू-मैं-मैं हुई, फिर जोर-जोर से बहस होने लगी। वह गज़ब जोर से बोल रही थी- "सारे दिन बदबू आती रहती है, वह तो हम ही हैं, जो सह लेते हैं। कोई और हो तो सिर  में दर्द ही हो जाये।"
वह कौन सा कम था, तुनक कर बोला-"अरे जाओ-जाओ, सिर दर्द तो मेरे हो जाता है, सारे दिन तुम्हारी चख-चख से। "
वह बोली-"धमधम की आवाज़ आती रहती है, ऐसा लगता है जैसे भूकंप आ गया हो। धरती डोलती रहती है, पता नहीं क्या करते हो दिन भर घर में?"
-और तुम?मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कहीं बाढ़ आ गई हो, पानी बेकार बहता रहता है" वह हाथ नचा कर बोला।
अभी उनकी महाभारत और न जाने कितनी देर चलती, पर तभी कुछ खटका सा हुआ। दोनों सहम कर चुप हो गए। शायद केयर-टेकर उन्हें दोपहर का खाना डालने आया था। "ज़ू" के कर्मचारी ने पहले बन्दर को फल और रोटी डाली, फिर बतख को काई की खिचड़ी डाल कर लौट गया।दोनों पड़ौसी बहस भूल कर अपने-अपने पिंजरे में लंच लेने लगे। आज ज़ू की छुट्टी थी, इसलिए दोनों पड़ौसियों के पास यही तो टाइमपास था, वरना दिन कैसे कटता?  

Monday, July 1, 2013

पेरू, कम्बोडिया और भारत

 हाल ही में पेरू, कम्बोडिया और भारत के एक-एक पर्यटन-स्थल को विश्व के सर्वाधिक देखे जाने वाले स्थलों में शामिल किया गया। ताजमहल का यह शानदार सम्मान है। यमुना नदी के किनारे आगरा शहर में खड़े इस मकबरे के मस्तक पर प्रेम का परचम लहराता है, यह और भी ख़ुशी की बात है।
किसी समय मिस यूनिवर्स प्रतियोगियों को एक राउंड के लिए ताज पर लाने की पेशकश हुई थी, जो अंततः मंज़ूर न हो सकी। हो सकता है कि अब फिर से ऐसी किसी मांग पर विचार हो।ये मांग जिसने भी की होगी, न जाने इसके पीछे उसका मंतव्य क्या रहा हो?
हो सकता है कि  दुनिया-भर की रूपसियों को प्रेम महल की छाँव में लाकर ये सन्देश देने की कोशिश की गई होगी कि  सौंदर्य प्रेम की धूप  में ही परवान चढ़ता है। हो सकता है कि  प्रीत- रंगी दीवारों पर सौंदर्य का उजाला फेंकने की कोशिश में ये पेशकश की गई हो। जो भी हो, ये कल्पना जब भी आकार लेगी, लोग तभी समझेंगे- "सोने पे सुहागा" मुहावरे का अर्थ।            

Saturday, June 29, 2013

गफ़लत और उत्तराखण्ड मन्दाकिनी जल विभीषिका

कोई गफ़लत कर दी जाए या हो जाए,तो उसकी वज़ह बताई जानी चाहिए। यह पोस्ट दो सप्ताह बाद आ रही है। मित्र और शुभचिंतक शायद इसकी वज़ह जानना चाहें। ये दिन एक ऐसे विवाह-समारोह में बीते जहां आयोजन-समिति में भी सम्बद्धता थी।
उत्तराखंड में हुए जल-प्लावन के बाद कई निर्दोष-निरीह-निस्वार्थ असहाय लोगों को कष्ट सहते देखा। मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि। जो बच तो गए पर अपने किसी परिजन को खो बैठे, उनके प्रति संवेदनाएं।
जो फंसे तो थे, पर बाद में सकुशल लौट आये, उन्हें मिले सबक के लिए बधाई।
ये लोग किसी टीवी चैनल के माध्यम से विमानतल,रेलवे-स्टेशन, बस-स्थानक या शरण शिविर से अपने  शिकायत,कृतज्ञता,या क्रोध का इज़हार कर रहे थे। इससे कुछ बातें तो उजागर होती ही हैं-
१. ये ईश्वर को नहीं, सरकार या प्रशासन को कोस रहे थे।
२. वरिष्ठ अधिकारियों, नेताओं की भांति भगवान भी वहां नहीं था।
३. हो सकता है, भगवान भी वहां हो और उसे इस भीड़ में से लोगों को अलग-अलग फल देना हो, इसलिए उसने यह रास्ता निकाला।
४. यदि संकट नहीं आता तो मंदिर में दर्शन करते समय ये लोग सरकार या "देश" के लिए भी कुछ मांगने वाले थे।
५. यदि ईश्वर ने कुछ लोगों का जीवन लेकर उन्हें फल दिया है,तो सरकार अब उन्हीं को मुआवज़ा देगी।
६. यदि इन सब बातों से ईश्वर का कोई सरोकार नहीं है तो क्या यह केवल साहसिक पर्यटन था?
७. संकट से निकल कर आये ये लोग अब अपनी-अपनी बस्ती में निरापद हैं।
[हाँ,विवाह-समारोह पुत्र का था]           

Friday, June 14, 2013

अगर आपकी बात सब मान लें !

यह आजमाया हुआ नुस्खा है कि यदि किसी चीज़ को बाज़ार से गायब करना हो,तो केवल यह अफवाह उड़ा दो कि  यह गायब होने वाली है। लोग ऐसी अफवाह पर तुरंत ध्यान देकर धड़ाधड़ वह चीज़ खरीदते हैं और वह सचमुच बाज़ार से गायब हो जाती है।
चिदंबरम ने आज जनता से अपील की है कि वह फिलहाल सोना न खरीदे। उनका कहना है कि  जब लोग ज्यादा सोना खरीदते हैं, तो फिर सोने का विदेशों से आयात करना पड़ता है।जिसके लिए महंगा डॉलर देना पड़ता है, जो हमें और गरीब बनाता है।
लेकिन शायद वित्तमंत्री जी यह नहीं सोच पाए कि भारतवासी रूपये पैसे से अमीर-गरीब नहीं होते। उनकी भूख रोटी खाकर नहीं मिटती, बल्कि यह देख कर मिटती है कि गेंहू मिला कैसे? सोने को गले में पहन कर कोई अमीर नहीं बनता, बल्कि इस से तो और जान जोखिम में पड़ती है। अमीर तो लोग इसका भाव दूसरों को  बताने में होते हैं।
वैसे वित्तमंत्री देश को यह भी तो समझाएं कि  दूसरे लोग हमारा सोना लूट कर हमें गरीब बना गए, और हम उसे वापस "खरीद" कर भी गरीब ही कैसे होंगे? क्या नीतियां बना रखी हैं हमने? सोना न खरीद कर हम वह रुपया बचा लें जो दिनोंदिन कमज़ोर हो रहा है, और वह सोना न खरीदें, जो दिनोंदिन मज़बूत हो रहा है?   

Monday, June 10, 2013

इसमें भी छिपी होती है उनकी महानता

जब प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद पुतिन ल्यूदमिला के नाम की रिंग अपनी अंगुली से उतार देते हैं, तो न पुतिन खलनायक नज़र आते हैं, और न ही ल्यूदमिला कोई खलनायिका।
वे दोनों भी चार्ल्स डायना की भांति अपनी-अपनी शख्सियत को अपनी तरह जीने वाले बेबाक, ईमानदार और खरे इंसान ही सिद्ध होते हैं।
वरना तो महलों, हवेलियों,सत्ताघरों में क्या नहीं होता रह सकता? लोग अपनी शफ्फाक- पवित्र जिंदगी के लिए दुनियावी शिखरों को इतनी आसानी से नहीं त्यागते।
सत्ता-सम्पन्नता के मद में नारायण दत्त तिवारी जैसे लोग भी तो होते हैं, जिनके राज भवनों में पता ही नहीं चलता कि कौन "साहब" को सुबह कॉफ़ी का प्याला देने के लिए है, और कौन पुत्र-रत्न।   

Friday, June 7, 2013

एक न एक खिलौना तो टूटेगा

खिलौने सब को प्यारे होते हैं, बच्चों को तो विशेष रूप से। कोई कभी नहीं चाहता कि  खिलौना टूटे। बच्चे तो इसलिए नहीं चाहते क्योंकि खिलौने उन्हें जान से भी ज्यादा प्यारे होते हैं, और बड़े इसलिए कि उन्हें बच्चे जान से ज्यादा प्यारे होते हैं, इसलिए वे बच्चों के खिलौने को भी बच्चों की तरह ही चाहते हैं। खिलौना टूट जाये तो बच्चों का दिल कैसे बहलेगा, और बच्चा रूठ जाये तो बड़ों का दिल कैसे बहलेगा।
लेकिन फिर भी खिलौने टूट जाते हैं। दरअसल खिलौने बनते ही टूटने के लिए हैं। क्योंकि खिलौने टूट कर भी बच्चों को कुछ न कुछ सिखा जाते हैं।
ऐसा ही एक खिलौना है क्रिकेट, जिससे पूरा देश खेलता है। बल्कि देश ही नहीं आधे से ज्यादा विश्व खेलता है। भारत ने आज क्रिकेट को इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है कि  अब जब मैदान पर कोई छक्का पड़ेगा तो देखने वाले यही सोचेंगे कि  यह इसने कलाई से मारा है या जेब से? जब कोई खिलाड़ी आउट होगा तो शंका होगी कि  इसकी ताकत चुक गई या इसने किश्त चुकाई है।
ऐसा न सोचने वाले केवल वही लोग होंगे जो अखबार नहीं पढ़ते या मीडिया की नहीं सुनते।
अगर ऐसा होता है तो अच्छी बात कहाँ है? आखिर मीडिया भी तो एक खिलौना ही है। वह टूटा, तो भी दुःख तो होगा ही। जान की आफत तो शिल्पा जैसी अभिनेत्रियों की भी है।अब न उनकी हँसी असली लगेगी न आंसू। तो एक खिलौना और टूटेगा,अभिनय, इससे भी तो दुनिया खेलती है।
इतने खिलौने टूटेंगे तो क्या सिखायेंगे?
यही कि  अति हर चीज़ की बुरी, चाहे खेल ही क्यों न हो! और ...धन इंसान को आसमान में उड़ना सिखाता है तो धूल में लोटना भी।    

Friday, May 31, 2013

हम इतने महान कैसे बने ?[अंतिम]

राजा के सांत्वना देने पर मालिन बोली-"महाराज, आपका बेटा घोड़े पर बैठ कर मंदिर के सामने से निकल रहा था, वह दर्शन करने के लिए उतरा तो मेरी बेटी ने जाकर एक माला उसके गले में डाल दी और अब जिद पकड़ कर बैठी है, कि  राजकुमार से शादी करेगी।"
राजा यह सुन कर आग-बबूला हो गया, बोला- "यह क्या मज़ाक है, उसे समझाओ, ऐसा नहीं हो सकता।"
मालिन बोली- "मैंने उसे बहुत समझाया, वह तो जान देने पर उतारू थी, पर मुश्किल से वह एक शर्त पर अपनी जिद छोड़ने पर तैयार हुई है।"
राजा ने फ़ौरन कहा- "क्या शर्त है, जल्दी बोलो, हमें सब मंज़ूर है।"
मालिन ने कहा- "वह चाहती है कि  आप सिर्फ एक दिन के लिए उसे राज्य की रानी बनादें "
राजा सोच में पड़ गया। प्रधान मंत्री ने फ़ौरन कहा- "सोच क्या रहे हैं महाराज, हाँ कह दीजिये, जान भी  छूटेगी, और प्रजा आपको महान भी कहेगी।"
राजा ने कहा- "हमें मंज़ूर है, पर हमारी भी एक शर्त है, प्रजा को यह वचन देना होगा- "फिर कभी कोई भी  किसी बात पर सट्टा नहीं खेलेगा। "
सारा वातावरण राजा की जय-जय कार से गूँज उठा।
   

Tuesday, May 28, 2013

हम इतने महान कैसे बने ? [छह]

राजा ने सोचा था कि  थोड़े दिन रानी के हाथ में शासन देने का नाटक करेंगे, घर भी वह संभालेगी, दरबार भी वही, आराम से शिकार खेलेंगे, घूमेंगे-फिरेंगे। पर यहाँ तो माजरा ही दूसरा था। ये तो जोर-शोर से इतिहास रचने में जुट गई।
राजा ने प्रधान मंत्री की राय ली। प्रधान मंत्री बोला- महाराज, आज तक किसी महिला ने शासन तभी किया है, जब उसका पति न रहा हो, या फिर शासन-योग्य न हो, आप अपने होते हुए इस चक्कर में न पड़ें।राजा को बात ठीक लगी। उसने रानी से कह दिया, कि  महिलाएं न चाहें, तो कोई बात नहीं, वे ये दायित्व न लें।
राजा रानी का विचार-विमर्श चल ही रहा था कि  तभी महल में तेज़ी से एक मालिन ने प्रवेश किया। वह हाथ जोड़ कर बोली- महाराज मुझे क्षमा करें, पर मैं राजकुमार की शिकायत करने आई हूँ।उसकी बेबाकी से राजा-रानी दोनों सन्न रह गए।
वह बोली- मैं अकेली विधवा जंगल से फूल चुन कर मंदिर के बाहर मालाएं बेच कर गुज़ारा करती हूँ। मेरी एक छोटी सी बेटी है। मैं उसका लालन-पालन कर रही हूँ, पर आज तो अनर्थ हो गया।
उसके इतना कहते ही राजा-रानी चिंता में पड़  गए।  

Monday, May 27, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [पाँच ]

राजा को कोई उत्तर देने से पहले रानी ने उनसे दो दिन की मोहलत मांगी, जो उन्हें तुरंत मिल गई।
अगली सुबह रानी ने महल में राज्य की प्रतिष्ठित महिलाओं की एक बैठक बुलाई। उन्हें संबोधित करते हुए रानी ने कहा- "हमें दैवयोग से इस राज्य का शासन मिल रहा है, किन्तु हम इसे स्वीकार करने से पहले आप सब की राय जानना चाहते हैं, आप सब बारी-बारी से अपनी बात कहें।"
महिलाओं ने कहना शुरू किया- "हमारा राज्य शुरू होते ही इसकी तुलना पुरुष शासकों से होने लगेगी, अतः यह सुनिश्चित किया जाय, कि  क्या वे भी हमें शासन चलाने में वैसा ही सहयोग देंगे, जैसा हम उन्हें देते हैं?"एक महिला बोली।
दूसरी ने कहा- "जब आप दरबार में जायेंगी, तो क्या राजा आपके वस्त्र, भोजन, समय और सुविधाओं का वैसा ही ध्यान रख पाएंगे, जैसा आप उनका रखती हैं?"
तीसरी ने कहा- "जब आप राज-काज के सिलसिले में अन्य पुरुषों के साथ उठना-बैठना, बातचीत या खानपान का व्यवहार करेंगी तो क्या  राजा बिना किसी ईर्ष्या-जलन के उसे स्वीकार करेंगे?"
चौथी ने कहा- "क्या राजा राजकुमार की देखभाल, लालन-पालन की ज़िम्मेदारी उठाएंगे?"
बैठक अभी चल ही रही थी कि  राजा, जो छिपकर इन लोगों की बातें सुन रहे थे, चिंतित हो गए।

Saturday, May 25, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [चार]

राजकुमार की आयु अभी मात्र सत्रह वर्ष थी। राजा ने सोचा, क्या इस कच्ची उम्र में इस पर राज्य का बोझ डालना उचित रहेगा? कहीं ऐसा न हो कि  राजा अपने अधिकार छोड़ दे, और राजकुमार अपने कर्त्तव्य पकड़ न पाए। ऐसे में राज्य का पतन तय था।
राजा ने राज-ज्योतिषी की राय लेनी चाही। राज-ज्योतिषी ने कहा- "भविष्य में दूर-दूर तक राज्य को कोई खतरा नज़र नहीं आता। राजा चाहे जो भी निर्णय लें, राज्य खुशहाल और सुरक्षित ही रहेगा। किन्तु ..."
किन्तु क्या, महाराज? राजा ने विचलित होकर पूछा।
राज-ज्योतिषी ने कहा- एक धर्म-संकट अवश्य है, कुछ समय के लिए यह राज्य किसी स्त्री-शासक के हाथ में जाने का योग अवश्य बन रहा है।
राजा ने प्रसन्न होकर कहा- इसमें कैसा धर्म-संकट? यह तो और भी अच्छा है, कुछ समय के लिए, जब तक राजकुमार वयस्क हो, हम महारानी को सत्ता सौंप देते हैं।
महारानी चिंता में पड़ गईं।   

Friday, May 24, 2013

हम इतने महान कैसे बने? [तीन]

राज्य का खज़ाना खाली होते देख राजा चिंतित हो गया। उसने प्रधान मंत्री से मंत्रणा की। प्रधान मंत्री ने कहा- आप बिलकुल चिंता न करें, इस समस्या का समाधान मुझ पर छोड़ दें।
अगले दिन प्रधान मंत्री ने घोषणा करवा दी कि  जिन लोगों ने भी महल में अपने  कबूतर दिए हैं, वे रोज़ दो-दो मोहरें उन कबूतरों के दाने-पानी के लिए महल में जमा कराएं, जिनका कबूतर इसके अभाव में मर गया उन्हें भारी दंड चुकाना होगा।
देखते-देखते शाही खजाने में अपार दौलत आने लगी, पर जनता इस रोज के दंड से त्राहि-त्राहि करने लगी।राजा का दिल प्रजा के कष्ट से पसीज गया।
राजा ने राजपुरोहित से मशविरा किया। राजपुरोहित ने कहा- प्रजा को कष्ट से बचाने  का एक ही रास्ता है, आप जनता के ऊपर लगाया गया कर-भार माफ़ करदें, किन्तु बिना किसी कारण से जनता को राहत देने से वह अकर्मण्य और नाकारा हो जाएगी, इसलिए  बेहतर होगा कि  यह लाभ जनता को किसी ख़ास मौके पर मिले।
राजा को यह बात जँची, लेकिन सवाल ये था कि  ख़ास मौका  क्या हो? राजपुरोहित ने इसका भी उपाय बता दिया- बोला- आप अपने पुत्र को राजा बना दें, और उसके राजतिलक के शुभ अवसर पर जनता को यह तोहफा देदें।
राजा चिंता में पड़  गया।    

हम इतने महान कैसे बने? [दो]

गुप्तचरों से यह जवाब सुन कर राजा चिंता में पड़ गया। उसे लगा, यह तो बुरी बात है, जनता जुआ खेले, और उससे अमीर बने, यह तो उचित नहीं।  राजा ने मन ही मन कुछ निश्चय किया।
अगले दिन से शाम को राजा के व्यवहार में अजीब सा परिवर्तन आ गया।वह कबूतर हाथ में लेकर उड़ाने लगता, फिर अचानक रानी से कहता, अच्छा लो, इसे तुम उड़ाओ। कभी रानी को पहले कबूतर देता, और जब वह उसे उड़ाने लगती, तो अचानक उसके हाथ से छीन लेता और कहता, नहीं-नहीं, मैं उड़ाऊंगा।
इस विचित्र व्यवहार से रानी चिंता में पड़  गई। उसने राज वैद्य से सलाह की। राज वैद्य ने कहा- इसका एक ही उपाय है। अब तक आप लोगों ने जितने भी कबूतर उड़ाए  हैं, वे सभी वापस लाये जाएँ,तो राजा ठीक होकर ये विचित्र आदत छोड़ सकते हैं।
रानी ने मुनादी करवा दी कि  जो कोई भी सफ़ेद कबूतर लाकर देगा, उसे कबूतर की कीमत के अलावा एक सोने की मोहर इनाम में दी जायेगी।
देखते-देखते प्रजाजनों की भीड़ महल के द्वार पर लगने  लगी। सबके हाथ में कबूतर थे। महल का पूरा अहाता कबूतरों का दड़बा  बन गया, और राज्य का खज़ाना तेज़ी से खाली होने लगा। 

Thursday, May 23, 2013

हम इतने महान कैसे बने?

एक राजा था। वह दिनभर राजकाज में व्यस्त रहता पर शाम होते ही थोड़े आराम, और हवा बदलने की गरज से महल की छत पर आ जाता। उसके साथ महल की छत पर रानीजी भी आतीं। दोनों चहलकदमी करते। राजा को एक अनोखा शौक था। वह रोज़ शाम को छत पर एक सफ़ेद कबूतर मंगवाता और उसे आसमान की ओर  उड़ा  देता। कुछ दिन तक यह खेल रानी ने देखा, फिर वह एक दिन पूछ बैठी- "आप रोज़ कबूतर आकाश में क्यों उड़ाते हैं?"
राजा ने कहा- "यह शान्ति का प्रतीक है, इससे शांति और समृद्धि आती है।" यह सुन कर रानी ने भी राजा से कबूतर उड़ाने की ख्वाहिश ज़ाहिर की।
अब रोज़ कबूतर लाया जाता और कभी राजा तो कभी रानी उसे उड़ाते।
दूर-दूर से प्रजाजन शाम होते ही महल की छत की ओर निहारने लगते, और राजा या रानी को कबूतर उड़ाते देख आनंदित होते।
राज्य में सचमुच खुशहाली आने लगी। सब समृद्ध होने लगे। धन बरसने लगा।
राजा को अचरज हुआ, एकाएक इतनी सम्पन्नता राज्य में भला किस तरह आ सकती है? राजा ने अपने गुप्तचरों को इस काम पर लगा दिया। कहा, यह पता  लगाएं, कि  सब खुशहाल कैसे हो रहे हैं?
कुछ दिन में गुप्तचर खबर लाये। उन्होंने राजा को बताया- "रोज़ शाम को आप या रानी साहिबा छत से  कबूतर उड़ाते हैं। प्रजा में इस बात पर भारी सट्टा  लगता है कि  आज राजा या रानी में से कौन कबूतर उड़ाएगा ? इसी सट्टे से जनता मालामाल होती जा रही है।"

अपने कष्ट कम कैसे करें

कष्ट बहुत बुरी चीज़ है। यह कभी किसी को न हो। लेकिन केवल चाहने से कष्ट कम नहीं होते। इसके लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
और यह प्रयास समय-समय पर किये जाते हैं। इस समय भी किये जा रहे हैं। ऐसे प्रयास मीडिया कर रहा है।
अब आप यह भी जानना चाहेंगे कि  मीडिया यह प्रयास कर कैसे रहा है।
जब भी हम किसी भी तरह की परेशानी में होते हैं, तब मीडिया झटपट हमें यह बता देता है कि  केवल आप ही नहीं, दूसरे भी परेशानी में हैं। जैसे-
यदि कहीं बम का विस्फोट होता है, तो मीडिया तुरंत आपको बता देता  है कि  ऐसा दूसरे  देशों में भी होता है। यदि कहीं आग लग जाती है तो खबर आती है कि  दूसरे  देशों में भी लग जाती है। यदि कहीं भूख या बेरोज़गारी है तो आपके लिए यह जानकारी हाज़िर है कि  और किस-किस  देश में भी बेरोज़गारी है। यदि कहीं भ्रष्टाचार हुआ है, तो फ़ौरन जान लीजिये कि  और देशों में भी तो हुआ है।
हाँ, यदि दूसरे  देशों में कुछ अच्छा हुआ है और हमारे यहाँ नहीं हो पाया तो मीडिया कुछ नहीं कहेगा, अब इस से आपके कष्ट बढ़ें तो बढ़ें।

Wednesday, May 22, 2013

दोनों हॉट हैं, इसलिए ऐसा हुआ

कल मैं पीज़ा की बात करते-करते फिल्मों की बात करने लगा, तो पढ़ने वालों को ऐसा लगना स्वाभाविक ही था कि  कहीं कोई भूल हो गई। अब मैं फिरसे बताता हूँ कि  मैं क्या कह रहा था।
मैं कह रहा था कि  यदि हम केवल आज के दर्शकों की राय के आधार पर यह जानेंगे कि  पिछले सौ सालों में सबसे अच्छा क्या था, तो शायद उस समय के साथ न्याय नहीं हो पायेगा जो बहुत पहले बीत गया। यह ठीक है कि  आज कई उम्रदराज़ लोग भी मौजूद हैं, जो पुरानी पीढ़ी  का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर उनमें से "वोट" कितने देंगे? और वोटिंग में तो एक-एक वोट से परिणाम बदल जाता है। वैसे ही, जैसे उदाहरण के रूप में हम आज के लोगों से उनके पसंदीदा भारतीय व्यंजन का नाम पूछें तो वे पीज़ा का नाम ले लेंगे,इस बात की परवाह किये बिना, कि वह कहाँ का व्यंजन है। दूसरे, उन्हें बहुत से उन व्यंजनों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी जो सालों पूर्व लोकप्रिय रहे होंगे।
यह विचार मुझे इसलिए आया कि एक साइट पर मैंने "सौ साल की सर्वश्रेष्ठ हीरोइन" के चयन नामांकन देखे। वहां कामिनी कौशल का नाम था, पर माला सिन्हा, निरुपाराय, सुचित्रा सेन, राखी गुलज़ार का नाम नहीं था। नीतू सिंह का नाम था, पर जयाप्रदा , रीना राय, दीप्ति नवल का नाम नहीं था। मीनाक्षी शेषाद्रि  का नाम था, पर पद्मिनी कोल्हापुरे, रति अग्निहोत्री का नाम नहीं था। और दीपिका पादुकोणे का नाम था, पर प्रियंका चोपड़ा का नाम नहीं था।

Tuesday, May 21, 2013

पिछले सौ सालों का सबसे स्वादिष्ट भारतीय व्यंजन- पीज़ा

भारत का सिनेमा अपने सौ साल पूरे होने का जश्न मना रहा है। कुछ अति-उत्साही लोग सौ सालों की उपलब्धियों को इतिहास में दर्ज कर देने की महत्वाकांक्षा भी पाले हुए हैं। यह अस्वाभाविक नहीं है।
फिर अस्वाभाविक या ग़लत  क्या है?
गलत है वह तरीका, जिससे इन उपलब्धियों को आंकने का काम हो रहा है। एक मशहूर साइट ने पिछले सौ सालों की ३८ अभिनेत्रियों के चित्र उनके संक्षिप्त परिचय के साथ पाठकों को "वोटिंग" के लिए परोस दिए हैं। एक जगह कुछ चुनिन्दा फिल्मों पर लोगों की राय 'शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म' के रूप में मांगी गई है।
इन प्रयासों के जो परिणाम आयेंगे, उनकी कसौटी तो बाद में होगी, अभी उनका नामांकन-चयन ही पूरी तरह निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता।
क्षमा करें, "जॉनी -जॉनी यस पापा" पढ़ने वाली पीढ़ी  'गीतांजलि' या 'कामायनी' को वोट शायद ही दे। ऐसे में "अपने" को चुनिए, पर ये मत कहिये कि  आप सौ साल के सबसे बढ़िया हैं।

ऐसा क्यों होता है

जब किसी देश का कोई बड़ा नेता किसी दूसरे  देश के दौरे पर जाता है, तो मीडिया का ध्यान उस देश से सम्बंधित सभी मुद्दों पर तेज़ी से जाने लगता है। न जाने क्यों, मीडिया भी अब ऐसा ही समझने लगा है कि  उसकी भूमिका वहीँ है जहाँ कुछ अनहोनी हो जाये। सामान्य ढंग से चलते कामकाज के समय मीडिया अपने को लाचार पाता है।और अब एक लाचारी ये है, कि  मीडिया खूब सघन है। ऐसे में यदि कुछ न हो तो वह क्या करे।
आज जब हम ये ख़बरें पढ़ रहे हैं कि  भारत और चाइना के बीच विकास के करार हो रहे हैं, सद्भाव के प्रयास हो रहे हैं, तो इसका कारण यही है कि  वहां के प्रधानमन्त्री हमारे बीच आये। कुछ दिन पहले ये ख़बरें  भी हम इसीलिए पढ़ पा रहे थे, कि  चाइना ने हमारे क्षेत्र में घुसपैठ कर ली है।
हम चाइना की वस्तुओं की तरह आपसी संबंधों को भी मुहावरा बनाने से रोक सकें, ये ज़िम्मेदारी भी मीडिया को लेनी चाहिए।

Friday, May 17, 2013

कनेक्टिविटी

एक गाँव के छोटे से स्कूल में सुबह के समय एक बच्चा बैठा अपने बैग में रखी कहानी की किताब पढ़ रहा था। किताब में एक छोटी कहानी थी, कि - "एक आदमी के पास एक मुर्गी थी। वह रोज़ एक अंडा देती थी। आदमी कभी अंडा खाता, कभी बेच देता। एकदिन आदमी के मन में यह लालच-भरा विचार आया, कि  क्यों न मैं मुर्गी को चीर कर सारे अंडे एक साथ ही  निकाल लूं। आदमी ने तेज़ चाकू लेकर मुर्गी का पेट चीर डाला। वहां से अंडे तो नहीं निकले, लेकिन एक "पोटली" ज़रूर निकली। पोटली में ढेर सारा पछतावा भरा था।"
बच्चे ने कहानी सब को सुनाई।
धीरे-धीरे बच्चों का मन कहानी-किताबों से हटने लगा। वे अब खेलना पसंद करते थे, ताकि बड़े होकर खूब नाम और पैसा कमा सकें।
एकबार कुछ बच्चों ने खेल-खेल में खूब नाम कमा लिया। उन्होंने सोचा अब अपने नाम को बेच कर खूब सारा पैसा भी कमा लिया जाये। बच्चों ने बचपन में मुर्गी वाली कहानी तो पढ़ी नहीं थी, अतः उन्हें यह पता नहीं था, कि  रोज़ अंडे खाने से ताकत आती है, और सारे अंडे एक ही दिन निकाल लेने से मुर्गी मर जाती है। उन्हें ये कौन बताता कि  खेलने से मज़े भी आते हैं, और पैसे भी मिलते हैं, जबकि खेल को बेचने से मुर्गी की तरह खेल भी मर जाता है। बच्चे खेल बेचने का खेल खेलने लगे।  
आखिर एकदिन बच्चों को "पछतावे" वाली पोटली मिल ही गई। वे अब ये नहीं सोच रहे थे कि  हमने खेल क्यों बेचा, बल्कि ये सोच रहे थे कि  हमने बचपन में कहानी क्यों नहीं पढ़ी।
 

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [ अंतिम]

महत्वपूर्ण यह है कि  जब हम पीढ़ी-अंतराल की बात करते हैं, तब ये केवल युवा, प्रौढ़ या वृद्ध लोगों की बात नहीं है। यह दो पीढ़ियों का विभेद है।
यदि एक बीस साल का लड़का और एक पचपन साल का प्रौढ़ रिश्ते में भाई [सगे या रिश्ते में] हैं तो इनमें पीढ़ी  अंतराल नहीं होगा, चाहे इनकी उम्र में पैंतीस साल का अंतर है । जबकि यदि अठारह साल का लड़का है, और छत्तीस वर्ष की आयु की उसकी माता है, तो केवल अठारह साल का अंतर होने पर भी यहाँ दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व है। अतः इनकी विचार-भिन्नता में दो पीढ़ियों के अंतर वाली मानसिकता दिखाई देगी।
प्रायः आयु का अंतर भी विचारों की ताजगी को प्रभावित करता है, और इसके समान्तर और भी कई कारक हमारे विचारों को निर्धारित करते हैं। फिरभी दो पीढ़ियाँ   जब आमने-सामने होती हैं तो उनका सोचने का नजरिया एक ख़ास द्रष्टि रखता है। इसी द्रष्टि-अंतराल को हम उनकी व्यवहार-चर्या में देखते हैं।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [नौ ]

मुझे नहीं पता कि  आप ये  बात मानेंगे या नहीं, लेकिन मेरे शोध में एक बात और आई है, जिसमें दो पीढ़ियाँ अलग-अलग बर्ताव करती हैं।
ये बात है, किसी भी रोग या शारीरिक कष्ट की अवस्था में डॉक्टर को दिखाने को लेकर। देखा गया है कि  रोग का अंदेशा होने पर या उसके चिन्ह दिखाई देने पर पुराने लोग थोड़ा ठहर कर देखने के कायल होते हैं। उन्हें लगता है कि  शरीर की कुछ प्रतिरोधक क्षमता होती है, अतः रोग शुरू होने पर पहले कुछ परहेज़ रख कर शरीर को अपना काम करने देना चाहिए। ठीक न होने पर ही दवा या डॉक्टर का सहारा लेना चाहिए। बल्कि कभी-कभी तो वे देसी घरेलू इलाज़ से काम चला लेजाने की कोशिश भी करते हैं।
इसके विपरीत नई नस्ल के युवा प्रतिरोधक क्षमता के भरोसे बैठना पसंद नहीं करते। वे घरेलू इलाज पर भी भरोसा नहीं करते। उन्हें लगता है कि  हर रोग का स्पष्ट  वैज्ञानिक कारण है, रोग होते ही डॉक्टर को दिखाया जाना चाहिए। शायद युवा पीढ़ी  इस बात से भी भली भाँति परिचित है कि  आज के मिलावट के ज़माने में घरेलू वस्तुएं और जड़ी-बूटियाँ प्रभावशाली नहीं हो सकतीं।
यद्यपि आज रोग के इलाज़ पर "बीमा" का प्रभाव भी देखा जाता है। यदि आपको इंश्योरेंस से इलाज़ का पैसा वापस मिल जाता है, तो आप महँगा इलाज़ पसंद करते हैं, पर यदि पैसा जेब से ही जाना हो तो सोच-समझ कर खर्च किया जाता है।

Thursday, May 16, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [आठ]

दो पीढ़ियों के व्यवहार में एक रोचक अंतर और मिलता है।
मौजूदा फैशन को लेकर नई  पीढ़ी  ज्यादा सजग है। यदि तंग पायजामा फैशन में है, तो फिर नई  पीढ़ी  को इस से कोई सरोकार नहीं है, कि  वह आरामदेह  है या तकलीफदेह, उसे वही चाहिए। जबकि पुरानी पीढ़ी  को बदन पर जो सुविधा-जनक लग रहा है या सुहा रहा है, वही चाहिए, चाहे वह देखने में कैसा भी पुरातन लग रहा हो।
यही लॉजिक उलट जाता है जब बात 'मेक-अप' की आती है। युवा फैशन-प्रिय होते हैं किन्तु श्रृंगार-प्रिय नहीं होते। प्रायः जो कुछ जैसा है वे उसे वैसा ही दिखाने में यकीन करते हैं। जबकि चीज़ों को श्रृंगार से बदलने की चाहत  या लालसा पुराने लोगों में ज्यादा होती है। इसका कारण भी यही है कि  उनके व्यक्तित्व में गुजरता वक्त  ज्यादा फेर-बदल कर देता है, जबकी  युवा उगते हुए जिस्म के मालिक होते हैं, जिसे ज्यादा सजाना-सँवारना नहीं पड़ता।
नई  उम्र की नई  फसल के विचार चंचल और बदलते हुए होते हैं, शायद इसीलिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि  फैशन ऐसी बदसूरत चीज़ है जिसे बार-बार बदलना पड़ता है।  लेकिन किसी युवादिल से पूछिए- "फैशन कितनी खूबसूरत चीज़ है।"  

Wednesday, May 15, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [सात]

जब दो पीढ़ियों की  तुलना होती है, तो एक तथ्य और भी उभर कर आता है- धन का अर्जन और उसका उपभोग या खर्च। धन को खर्च करने के रवैये पर भी दो पीढ़ियाँ  अलग-अलग सोच रखती हैं।
युवा पीढ़ी  सोचती है कि  जितना है, वह सब खर्च करने के लिए ही तो है। बल्कि कभी-कभी तो युवा लोग इसके लिए भी तत्पर हो जाते हैं, कि  उधार लेकर खर्च कर लें, बाद में चुका देंगे। बेतहाशा बढ़ते लोन और अग्रिम की वित्तीय गतिविधियाँ इसी सोच का नतीजा हैं।
इसके विपरीत पुरानी पीढ़ी  इस मामले में थोड़ी कंजर्वेटिव है। जो है, वह भी पूरा खर्च डालने के लिए नहीं है। इसी में से भविष्य की आपदाओं के लिए भी बचा कर रखना है। हाथ में चार पैसे रहेंगे, तो मदद भी मिलेगी, खाली हाथ  वालों को कोई नहीं पूछता।
इस अंतर का कारण यह है कि  दोनों पीढ़ियों की जोखिम उठाने की क्षमता अलग-अलग है। यही अंतर हमें संतुष्ट या असंतुष्ट भी रखता है, माने कूल।
हाँ, कभी-कभी कुछ बुज़ुर्ग यह भी सोच लेते हैं कि  जो पास में  है उसका आनंद लिया जाए, तब उन्हें "जिंदादिल" के तमगे से नवाज़ा जाता है। कोई युवा कहता है कि  सोच-समझ कर खर्च  किया जाए, तो उसे 'कंजूस' की पदवी भी मिल सकती है।
पहले कहा जाता था कि  "पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत कपूत तो क्यों धन संचय?" अब लोग सोचते हैं कि  धन होगा तो पूत भी सपूत होगा, धन नहीं होगा तो पूत भाग्य-भरोसे हो जाएगा।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [छह]

लड़का बहुत तेज़ बाइक चला रहा था। उसके पीछे उसके पिता बैठे थे, जो किसी काम से बाज़ार गए थे। गाड़ी  से उतरते ही पिता ने लड़के को टोका- "तुम बहुत तेज़ गाड़ी  चलाते हो, इतना तेज़ नहीं चलना चाहिए, इससे दुर्घटना हो जाती है ।"
लड़के को बहुत आश्चर्य हुआ। आश्चर्य के कई कारण थे- पहला कारण तो ये था, कि दुर्घटना नहीं हुई थी, तब भी  उसे ये बात कही जा रही थी। दूसरा कारण ये था कि गाड़ी चलाने से पहले या चलाते समय नहीं, बल्कि गाड़ी चला लेने के बाद उसे ये टिप्स दिए जा रहे थे। तीसरा कारण यह था, कि पिता को वहां जल्दी पहुंचना था, इसीलिए लड़के को ले जाया गया था, अन्यथा वह बस से जा रहे थे। चौथा कारण यह था कि  समय से काम पूरा करवा दिए जाने पर किसी शाबाशी के बदले यह सीख मिली थी।
उधर पिता के मन में यह ख्याल था कि  अभी तो वे साथ में थे, अकेले में तो यह न जाने कितनी तेज़ी और लापरवाही से चलाता होगा। ये आजकल के बच्चे सड़क के ट्रेफिक को कम्प्यूटर गेम समझते हैं, दुर्घटना होने के बाद ही इन्हें समझ आती है। इन्हें इतनी समझ नहीं है कि  यह सब सुविधाएं आदमी की सहूलियत के लिए  हैं, जान जोखिम में डालने के लिए नहीं।
यह विचार-भिन्नता पीढ़ी -अंतराल है। यहाँ पुरानी पीढ़ी  को यह समझना होगा, कि  उनके अनुभव की जगह बच्चे 'अपने' अनुभवों से ज्यादा सीखेंगे। बच्चों को भी यह सोचना चाहिए, कि  उनसे ऐसा क्यों कहा जा रहा है, इसके क्या परिणाम हो सकते हैं।      

Monday, May 13, 2013

आइये "पीढ़ी-अंतराल" मिटायें [पांच]

मैं छुट्टी के दिन अपने एक मित्र के यहाँ गया तो वहां माहौल बेहद मनोरंजक पाया। वे स्वयं अखबार पढ़ रहे थे, उनका पुत्र टीवी पर क्रिकेट देख रहा था, उनकी  पत्नी डाइनिंग टेबल पर बैठी फल काट रही थीं और उनकी बेटी अधलेटी होकर किसी पत्रिका में खोई हुई थी।
मेरे आगमन से सबसे पहला खलल बेटी की आराम-तलबी में  पड़ा। मेरे मित्र की पत्नी ने उसी से कहा-"बेटी, देख नहीं रही है, अंकल आये  हैं, चलो उठ कर पानी पिलाओ"
बिटिया ने अचम्भे से मेरी ओर  देखा और बोली-"अंकल, आपको प्यास  लगी है?"
उसका इतना पूछना था, कि  माहौल ने मनोरंजन को तिलांजलि देकर तल्खी का रुख अख्तियार कर लिया। उसके पिता  बोले- "कोई घर में आये तो चाय-पानी पूछते ही हैं, अतिथि अपने आप थोड़े ही मांगेगा"
बिटिया उठ कर पानी लाने चली तो गई, पर उसके जाते-जाते भी उसकी आँखों में दो सवाल मैंने पढ़ ही लिए। पहला सवाल तो ये था, कि  यदि अतिथि के आते ही उसे पानी पिलाने का रिवाज़ है, तो ये बात बेटे, अर्थात उसके भाई को क्यों नहीं सिखाई गई?
इस सवाल पर अभी हम बात नहीं करेंगे, क्योंकि यह पीढ़ी -अंतराल नहीं, स्त्री-पुरुष-भेदभाव का सवाल है।
दूसरा सवाल ये था कि क्या नाश्ता-पानी किसी के बिना कहे देने से बेहतर यह नहीं है  कि उससे पहले पूछ लिया जाए? हाँ, यह अब पीढ़ी -अंतराल की बात है। पुरानी पीढ़ी कहती है, कि जलपान किसी के बिना चाहे पेश करना "शिष्टाचार" है। नई पीढ़ी कहती है, कि पहले पूछ कर हम समय-शक्ति-सुविधा का बेहतर तालमेल कर सकते हैं।
बहरहाल, बिटिया जब पानी लाई तो मुझे सचमुच प्यास नहीं थी, पर मैंने एक घूँट केवल इसलिए भरा, कि  कहीं उससे किसी को कुछ सुनना न पड़े।       

Friday, May 10, 2013

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [चार]

मेरे एक मित्र के पिता सेवानिवृत्त होकर अपनी सीमित पेंशन से निर्वाह कर रहे हैं। उनका स्वाभिमान उन्हें अकारण किसी की मदद नहीं लेने देता।  कभी-कभी उनके पास बैठने पर वे अपनी दिनचर्या की बातें शेयर करते हैं।
उन्होंने मुझे बताया कि जब भी वे अपनी कोई छोटी-मोटी चीज़ बाज़ार से मंगवाने के लिए अपने पोते को पैसे देते हैं, तो वह लाने के बाद बचे हुए पैसे उन्हें नहीं लौटाता। उन्हें बार-बार उससे पैसे वापस मांगने पड़ते हैं, जो उन्हें अच्छा नहीं लगता।
संयोग से एकदिन उनके पोते से बात हो गई। वह मेरे पूछने पर बोला- "अंकल, दादाजी एक-एक रूपये का हिसाब इस तरह करते हैं, कि  मुझे अच्छा नहीं लगता। कई बार तो मेरे दोस्तों के सामने भी मुझे शर्मिन्दा होना पड़ता है, वे सोचते हैं कि  हम दादाजी को अच्छी तरह नहीं रखते। जबकि पापा तो दादाजी को कितने भी पैसे देने को तैयार रहते हैं। मैं दादाजी की यही आदत छुडवाने के लिए कभी उनके सामान के लिए अपने पास से पैसे दे देता हूँ, कभी उनसे ज्यादा रख लेता हूँ।"
दादाजी का स्वाभिमान पूजनीय है। उसकी हिफाज़त होनी ही चाहिए। लेकिन बच्चे की इस भावना का आदर भी उतना ही ज़रूरी है कि  हम घर में "तेरा-मेरा" होने से रोकें।
बेहतर है कि  दादाजी हर महीने एक निश्चित राशि बच्चे को देदें, और उससे कहें कि थोड़े-थोड़े समय बाद वह हिसाब देता रहे, और ख़त्म होने पर पैसे और लेले। बच्चा भी यह सोचे कि  ये "उसके पिता के भी पिता" हैं,जो कहें, उसे ध्यान से सुने।  
.     

Thursday, May 9, 2013

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [तीन]

कुछ दिन पहले एक शादी के अवसर पर, जब आशीर्वाद समारोह चल रहा था, और वर-वधू  नाते-रिश्तेदारों से घिरे मंच पर बैठे थे, मेरी भतीजी ने आकर मुझसे कहा-  "अंकल, आप स्टेज पर से 'ओल्डीज़' को हटादो।"
मैंने पूछा- अरे क्यों?
वह बोली- देखो न, वो सब स्टेज पर खड़े-खड़े आपस में बातें किये जा रहे हैं,  कैमरामैन भी एक तरफ चुपचाप खड़ा है, भैया-भाभी [ दूल्हा-दुल्हन] बोर हो रहे हैं, लोग फोटो खिंचाने के लिए लाइन में खड़े हैं, कई तो चले भी गये।
मुझे उसकी समस्या वास्तव में गंभीर लगी। चंद ऐसे बुज़ुर्ग परिजन जो चालीस-चालीस साल बाद मिल रहे थे, भाव-विभोर हो कर मंच पर इकट्ठे हो गए थे, और पुराने दिनों की अंतहीन यादें ताज़ा कर रहे थे।
ऐसे में बच्चे विनम्रता और शिष्टाचार से 'दादाजी-नानाजी' की मदद करने के नाम पर उन्हें हाथ पकड़ कर  उतार लायें, यही व्यावहारिक है।
अधिक आयु के लोगों का यह दायित्व भी बनता है कि  ऐसे किसी समारोह में शिरकत करते समय किसी युवा को अपने साथ रखें। वह यथास्थिति भांप कर स्वयं आपके लिए  वांछित निर्णय ले सकेगा, और आपको नई  पीढ़ी  में 'अलोकप्रिय' होने से बचायेगा या बचाएगी।

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें [दो]

नई पीढ़ी  को अक्सर यह सोच कर उकताहट होती है, कि  बड़े बुज़ुर्ग लोग उनके ऊपर एक अद्रश्य पहरा सा देते हैं। जैसे- उनकी उपस्थिति में बच्चे जोर से हंस-बोल नहीं सकते, उनके लिए सीट छोड़ो, या खड़े हो जाओ, तेज़ आवाज़ में गाने नहीं सुन सकते, उन्हें अभिवादन करना पड़ता है, उनके सामने सोच-समझ कर पहनो-खाओ, यदि कहीं उनके साथ चलना पड़ गया तो धीरे चलो, ज़रा सी गलती हुई तो उनका उपदेश सुनो, आदि-आदि।
असल में बड़े लोग भी मन ही मन  वही चाहते हैं, जो बच्चे करते हैं। ऊब-बोरियत और पिछड़ापन खुद उन्हें भी अच्छा नहीं लगता। लेकिन फिर भी वे ऐसा व्यवहार केवल इसलिए करते हैं, क्योंकि उनके भीतर एक  असुरक्षा की भावना होती है। उन्हें लगता है कि  यदि वे भी बच्चों जैसे व्यवहार ही करने, या स्वीकार करने लग जायेंगे, तो बच्चे उन्हें भी अपना जैसा ही समझ कर उनके साथ  उपेक्षा का व्यवहार करने लगेंगे, और उनका  सम्मान करना बंद कर देंगे। उम्र के साथ-साथ उनकी शक्ति [सुनने, बोलने, देखने की] तो कम हो  ही जाती है, ऐसे में सम्मान  भी कम हो गया तो जीना दुश्वार हो जाएगा, यह डर उन्हें हमेशा सताता है।
ऐसे में बेहतर है, कि  उन्हें सम्मान देते रहें और अपनी हमउम्र गतिविधियों में भी शामिल करें, उनसे बचें नहीं। सम्मान देने से आपका कुछ घटेगा नहीं, सोचिये ये वे लोग हैं, जो दुनिया से आपसे पहले चले जायेंगे।    

आइये "पीढ़ी -अंतराल" मिटायें

 पीढ़ी -अंतराल माने जनरेशन गैप। जब भी कोई बात होती है तो उस पर दो पीढ़ियों के लोग अलग-अलग तरह रिएक्ट करते हैं। दोनों ही अपने वर्जन को सही मानते हुए दूसरे  के दृष्टिकोण की उपेक्षा करते हैं। बस, हो जाता है विवाद।
 पुराने ज़माने में कुछ लोग ऐसे होते थे, जिनकी भाषा अच्छी और शुद्ध होती थी। इसी कारण उनकी मांग और आदर होता था। लोग तरह-तरह के कामों में उनकी मदद लेते थे। इस से उनमें एक अहम या आत्म -विश्वास की भावना आ जाती थी। वे अपने को श्रेष्ठ समझने लगते थे।
अब ऐसे लोगों पर कोई ध्यान नहीं देता। न ही उन्हें इस कारण से विशेष माना जाता है। बस, पुराने लोग समझते हैं कि  नया ज़माना कृतघ्न हो गया, किसी का आदर करता ही नहीं।
इसका कारण  यह है कि  यह तकनीक का ज़माना है। आप तकनीक से अच्छी भाषा लिख सकते हैं, आपकी स्पेलिंग्स चैक हो जाती है, अक्षर सुन्दर बन जाते हैं, शब्द-भण्डार व सही व्याकरण एक क्लिक से उपलब्ध हो जाता है। और यह आपकी नहीं, मशीन की विशेषता है, इसलिए इसके लिए किसी को "क्रेडिट" देना नई पीढ़ी ज़रूरी नहीं मानती। आप सोचते हैं कि बचपन में मास्टरों से मार खाकर,अभ्यास कर-कर के, मुश्किल से जो सीखा, ये आज के लोग उसे अहमियत ही नहीं देते।बस, आप उनसे खफा हो जाते हैं।
सोचिये, जो चीज़ उनके लिए मुफ्त की हो, उसके लिए वे आपको धनवान क्यों समझें? 

काहे को दुनिया बनाई


एक बार वन में एक पेड़ पर बैठे-बैठे कुछ पंछियों में इस बात पर बहस हो गई कि  आखिर दुनिया बनाई ही क्यों गई है, इसका मकसद क्या है?
एक छोटी सी सुन्दर चिड़िया ने चहक कर कहा- "दुनिया इसलिए बनी है ताकि सब इसमें गा सकें। जो भी चाहे, जब भी चाहे, गुनगुनाये"
कौवे को ये बात  बिलकुल नहीं जँची। उपेक्षा से बोला, दुनिया में ढेरों काम हैं, केवल गाने से क्या? दुनिया तो इसलिए बनाई गई है, ताकि जिसके पास जो चीज़ न हो, वह उसे दूसरों से छीन ले।
तभी तोते की आवाज़ आई- " धूर्त,ये दुनिया छीना-झपटी का अड्डा नहीं है, ये सबके एक साथ आराम से रहने के लिए बनी है।"
सब चौंके, क्योंकि अब आवाज़ पेड़ के नीचे से आ रही थी। नीचे घूमता हुआ मुर्गा कह रहा था-"क्यों बेकार की बहस कर रहे हो, देखते नहीं, दुनिया तरह-तरह की चीज़ों को खाने के लिए बनाई गई है।"
चहक कर मैना  बोली- "तुम इसी लालच में मारे गए,सब लोग हम में से किसी को नहीं खाते, सबके मुंह में तुम्हें देखते ही पानी आता है।"

Tuesday, May 7, 2013

ये मुझ पर उनकी कृपा है

एक बार ईश्वर कहीं से गुजर रहा था कि  राह में उसे एक बच्चा मिला। ईश्वर ने बच्चे को अपना परिचय दिया और कहा कि  मैं इसी तरह अपनी दुनिया देखने आता हूँ।
बच्चे ने पूछा, आप इतने सतर्क हैं तो दुनिया इतनी खराब क्यों है?
ईश्वर ने आश्चर्य से कहा- "क्या खराबी है, तुम मुझे झटपट बताओ, मैं तत्काल कुछ करूँगा।"
बच्चा बोला- "देखो, अभी सुबह की ही बात है, पापा चॉकलेट लाये थे, पर मेरी बहन ने बड़ी वाली तो खुद रख ली, और छोटी मुझे देदी।"
"ओह, तो ये बात है", ईश्वर ने कहा-"देखो, चॉकलेट मजेदार तो थी, पर उस से कभी-कभी दांत भी खराब हो जाते हैं, इसलिए तुम तो खुश हो जाओ, कि  दीदी के दांत ज़्यादा खराब होंगे, तुम्हारे कम।"
बच्चा बोला-"अच्छा, तो तुम भी अपने को ऐसे ही समझाते हो?"
ईश्वर निरुत्तर होकर आगे बढ़ गया।     

Monday, May 6, 2013

भला ऐसा भी कहीं होता है?

एक बार एक आदमी ईश्वर के पास गया, और हाथ जोड़ कर बोला- "मुझे वरदान दो, कि  मेरी मनोकामना पूरी हो।" कुछ होता कि  उसके पहले ही दूसरा आदमी वहां आया और अगरबत्ती जला कर बोला- "प्रभु, मेरी मनोकामना पूरी करो।"
मुश्किल से एक पल बीता होगा कि  तीसरे आदमी ने वहां प्रसाद चढ़ा कर कहा-"मेरी मनोकामना पूरी करना"
तत्काल चौथे आदमी ने आकर कुछ भेंट चढ़ाई और निवेदन किया-"भगवान, मेरी मुराद पूरी करो।"
वह आदमी पलटता, उसके पहले ही एक और आदमी बोरा भर कर नोट लाया, और रख कर हाथ जोड़ दिए- "प्रभु, मेरी मुराद पूरी करना।"
तभी एक और आदमी ने भीतर आकर हीरे-जवाहरात का बक्सा पलट कर कहा-"स्वामी, मेरी मनोकामना पूरी हो ।"
तभी एकाएक कोलाहल होने लगा, बाहर भीड़ जमा होने लगी। कुछ आवाजें आने लगीं-"मूर्ति को यहाँ से हटाओ !"
लोगों को गहरा अचरज हुआ जब उन्होंने सुना कि  मूर्ति  से आवाज़ आई- "मुझे नहीं, पुजारी को हटाओ, चढ़ावा तो यही ले जाता है, और हो सके तो कभी अपने गिरेबान में भी झाँको ।"


Saturday, May 4, 2013

क्या आप बता सकते हैं कि कितना अंतर है- मार्क्सवादियों और मार्क्स में?

यह कोई अचम्भे की बात नहीं है कि  "मार्क्स" और मार्क्सवादियों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। जब पेड़ बीज से अलग हो सकता है, तो मार्क्सवादी मार्क्स से अलग क्यों नहीं हो सकते? आज गांधीवादी गाँधी जैसे नहीं हैं। रामभक्त राम जैसे नहीं हैं। और तो और, कुछ लोग यहाँ तक कहते हैं कि  इस दौर के इंसान इंसानों जैसे नहीं हैं।
आइये देखें, कोई वैसा क्यों नहीं है, जैसा वह हुआ चाहता था?
१.  कभी भी मौलिकता अनुयायिकता जैसी नहीं होती। अर्थात आपके समर्थक आप जैसे नहीं होंगे। वे आपके पीछे चल रहे हैं,जबकि आपने रास्ता बनाया है। यदि वे आप जैसे होते, तो नया रास्ता बनाते, आपके पीछे क्यों चले आते?
२. कार्ल मार्क्स को जो तकलीफ हुई, वह उनके समर्थकों या अनुयायिओं को नहीं हुई, क्यों कि  उसका   समाधान मार्क्स ने दे दिया। जिस पहेली को हल करने में आपने माथा-पच्ची की,आपके फ़ालोअर्स को तो वह सुलझी हुई मिली न ?
तो हम भी इत्मीनान रखें, कि  मार्क्सवादी आज मार्क्स जैसे नहीं हैं, तो कोई बात नहीं।
वैसे उनमें अंतर है क्या? केवल यही- "मार्क्स समझते थे कि  हर व्यक्ति के विचार अलग हो सकते हैं, जबकि मार्क्सवादियों का विचार है कि  सबको उनकी तरह ही सोचना चाहिए।"  

Thursday, May 2, 2013

सात रंग के सपने [समाधान]

गुरूजी के द्वारा दिए गए प्रसाद ने सभी मित्रों का मार्गदर्शन अलग-अलग तरीके से किया, सभी को अलग-अलग मात्रा में प्रसाद भी मिला।
यह आश्चर्यजनक है कि  उन सभी ने  अलग-अलग पार्टियों को वोट दिया। इस तरह अलग-अलग विचार धारा की कम्युनिस्ट, डीएमके,जनता दल, समाजवादी, बहुजन समाज, भा ज पा और कॉंग्रेस पार्टियों को उनका समर्थन मिला।
अब आप यदि यह जानना चाहें, कि  किसने किसे वोट दिया, तो आपको स्वयं अनुमान लगाना होगा। क्योंकि वोट तो "गोपनीय"होते हैं, हम कैसे बता सकते हैं?
हाँ,यदि आप अपना अनुमान बताना चाहें तो बता सकते हैं, क्योंकि सर्वे तो होते ही हैं।

Tuesday, April 30, 2013

सात रंग के सपने

सात दोस्त थे। जब बड़े हुए तो एकदिन अपने गुरूजी के पास जाकर बोले- "सर, अब हम सब अठारह साल के हो गए हैं, हमें अपनी सरकार चुनने का हक़ भी मिल गया है। सारी पार्टियों के लोग वोट मांगने भी आते हैं। आप हमारा मार्गदर्शन कीजिये, कि हम किसे चुनें?
अनुभवी गुरु ने एक-एक दोने में एक-एक लड्डू रख कर सबको दिया और कहा- " ये प्रसाद है, इसे लेजाओ, पर इसे कल सुबह खाना, सुबह तक तुम्हें यह संकेत भी मिल जाएगा कि तुम्हें किसे चुनना है।" सभी  मित्र चले आये।
अगली सुबह पहले मित्र ने देखा, कि  प्रसाद के लड्डू में चींटियाँ लगी हुई हैं, उसने वह उठा कर उन्हीं के खाने के लिए नाली में डाल दिया।
दूसरे  दोस्त को भी लड्डू वैसे ही मिला। लेकिन उसने झटपट उसपर से चींटियों को झाड़ा और लड्डू खा लिया।
तीसरे के घर शायद किसी ने उसे ढक दिया था, अतः चींटियाँ तो नहीं लगी थीं,पर ढकने वाले ने आधा लड्डू खा लिया था, लड़के ने उसे जूठा समझ कर फेंक दिया।
चौथे मित्र के यहाँ भी यही हुआ, पर उसने बाकी बचा आधा लड्डू खा लिया।
पांचवां मित्र जब सुबह उठा, तो उसने देखा कि  घर के सब लोग मिलकर लड्डू को थोड़ा -थोड़ा  खा रहे हैं, उसने भी हिस्सा बटा लिया।
छठे दोस्त को लड्डू वहां से गायब मिला। उसने सोचा- दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, और प्रसाद की बात भूल गया।
सातवें दोस्त की जब आँख खुली तो उसने गुरूजी को अपने घर के बाहर खड़े पाया। वे कह रहे थे कि  रात को उनके घर से सारे लड्डू चोरी हो गए, और वे चोर के पैरों के निशानों का पीछा करते-करते यहाँ तक आये हैं।
[कल हम जानेंगे कि  किस मित्र ने चुनाव में किसे चुना]

दोस्ती किसने तोड़ी ?

बचपन में मेरा एक मित्र था, अरुण। उसे अन्य देशों के बच्चों से पत्रमित्रता करने का बड़ा शौक था। उसके पास कई विदेशी पत्रिकाएं और किताबें आया करती थीं, क्योंकि उसके पिता किसी नामी पुस्तकालय के अध्यक्ष थे। हम दोनों मित्र खाली समय में बैठ कर उन पत्रिकाओं से तस्वीर और पते देख कर उन लोगों को चुनते थे, जिनसे दोस्ती की जाए। अरुण उस चयन में हमेशा मेरी पसंद को बहुत महत्त्व देता था, क्योंकि मेरे बताये कुछ पतों से उसे अच्छे पत्र-मित्र मिले थे। इस कार्य में मेरी कोई विशेषज्ञता नहीं थी, बल्कि मैंने वे नाम अलटप्पे [संयोग से] ही चुने थे।
मैं नाम चुनते समय दो बातों को बहुत महत्त्व देता था। एक तो डेनमार्क, मलेशिया, तंजानिया, ब्राजील, इटली या टर्की के लोगों को पसंद कर लेता था, दूसरे मुझे सुन्दर बालों वाले बच्चे ज़्यादा आकर्षित करते थे।
दरअसल, मैं बचपन में डाक-टिकट कलेक्शन करता था। तो जिन देशों के डाक-टिकट मुझे सुन्दर लगते, वहां के लोगों को मित्र बनाने का मन होता था। भूटान भी ऐसे ही देशों में था। दूसरे, जब भी हम किसी फोटो-स्टूडियो में फोटो खिंचवाने जाते, तो फोटोग्राफर कंघा देकर कहता- अपने बाल ठीक करलो। फोटो खिंचवाने से पहले मैं  हरेक को बाल संवारते ही देखता था, चाहे लड़के हों या लड़कियां।
अरुण समझता था, कि  मैं मित्रता का बड़ा पारखी हूँ।
एक बार हमने एक मित्र को उसके कहने पर भारतीय रंगों का डिब्बा भेजा, वह बहुत खुश हुआ। दूसरी बार उसने हमसे एक भारतीय "सांप" भेजने का आग्रह किया। दोस्ती टूट गई।

हम मेज़ लगाना सीख गए!

 ये एक ज़रूरी बात थी। चाहे सरल शब्दों में हम इसे विज्ञापन कहें या प्रचार, लेकिन ये निहायत ज़रूरी था कि हम परोसना सीखें। एक कहावत है कि भोजन ...

Lokpriy ...