Wednesday, March 6, 2013

अभी कल की सी बात है

 लगभग बत्तीस साल पहले मैंने एक उपन्यास लिखा था, जिसमें मैंने कहा था कि  हम प्रकृति की अनदेखी नहीं कर सकते। यदि प्रकृति के अनुसार कोई फल पंद्रह साल में पकता है, तो हम यह नहीं कह सकते, कि  अभी हमें भूख नहीं है, हम इसे पच्चीस साल में खायेंगे।
"देहाश्रम का मनजोगी" की कथावस्तु यही थी, कि  हम आर्थिक कारणों से विवाह की उम्र बढ़ाते जा रहे हैं,जिसके नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ रहे हैं। यह बाल-विवाह की हिमायत नहीं है, किन्तु किसी भी समाज में पच्चीस साल तक युवक या युवती किसी परस्पर आकर्षण के बिना नहीं रह सकते। यदि हम चाहते हैं कि  पढ़ाई पूरी कर के रोज़गार से लग जाने और मानसिक रूप से परिपक्व हो जाने के बाद ही युवाओं का विवाह हो, तो हमें यह जिद छोड़नी होगी कि विवाह के समय तक युवक या युवती शारीरिक रूप से भी तब तक बिना किसी स्पर्श के पूर्ण ब्रह्मचारी ही रहें। हम साधू-सन्यासियों की नहीं, आम आदमी की बात कर रहे हैं।
यह ख़ुशी की बात है कि  हमारा कानून अब सहमति से यौन सम्बन्ध बनाने की न्यूनतम उम्र अठारह से घटाकर सोलह साल करने जा रहा है।
समाज में दिनोंदिन बढ़ रही लैंगिक अराजकता पर यह क़ानून कुछ तो सकारात्मक प्रभाव डालेगा।     

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