Monday, December 9, 2013

संविधान के साये में दिल्ली की दवा

दिल्ली थोड़ी देर के लिए रुक गई।  हमारा मकसद यह नहीं है कि हम दिल्ली के इस ठहराव और किंकर्तव्य विमूढ़ता के कारण तलाश करें।  हमारा उद्देश्य केवल यह है कि हम संविधान के उजाले में दिल्ली के लिए रास्ता खोजें।
विधान सभा के चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बीजेपी है मगर उसके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। आम आदमी पार्टी अच्छी-खासी तादाद लेकर जीती है पर वह न तो किसी का समर्थन करना चाहती है, और न ही किसी का समर्थन लेना।
कांग्रेस पराजित हुई है और उसकी नेता के भी न जीत पाने से उसमें इस समय मनोबल की  ज़बरदस्त कमी है जिसके चलते वह सरकार बनाने के लिए किसी तरह की  पहल करने की  स्थिति में अपने को नहीं पा रही है।
जनता दल यूनाइटेड मात्र उपस्थित है।
ऐसी स्थिति में संविधान के अनुसार ये सभी दल अथवा इनमें से कोई भी अन्यों के सहयोग से सरकार बना सकते हैं।  संविधान में "राष्ट्रीय नैतिकता" का उल्लेख है।
यदि कुछ दल विपक्ष की  भूमिका में ही रहना चाहते हैं तो उन्हें यह समझना चाहिए कि विधायकी केवल अधिकार नहीं, वह संविधान में एक कर्त्तव्य की  तरह भी उल्लेखित है।
यह बात अलग है कि प्रायः ऐसी स्थिति आती नहीं है।  शेर के सामने पड़ जाने पर आदमी को क्या करना होगा, यह किसी संहिता में अक्सर दर्ज़ नहीं होता क्योंकि ऐसे में जो भी करना है वह अमूमन शेर ही करता रहा है।  यह संविधान निर्माताओं ने कभी सोचा नहीं होगा कि यदि जनता के वोट से जीत कर आ जाने के बाद भी कोई जनता के लिए रचनात्मक जिम्मेदारी न उठाना चाहे तो क्या होगा, ठीक उसी तरह, जैसे गांधीजी ने यह नहीं बताया कि एक गाल पर चांटा खाने के बाद, दूसरा गाल आगे कर देने पर यदि सामने वाला दूसरे गाल पर भी चांटा मार दे तो क्या करना होगा।
कभी-कभी एकतरफा बात कही जाती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय नैतिकता का पालन किया जाना चाहिए। मसलन जो भी विधायक व्यक्तिगत तौर पर सरकार की  जिम्मेदारिया उठाना चाहें, उन्हें यह सुविधा मिलनी चाहिए।  अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार इस काल्पनिक परिकल्पना का उल्लेख किया भी था।      

2 comments:

  1. बहुत सुंदर चित्रण , भाव पूर्ण रचना , बधाई आपको ।

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