Wednesday, December 2, 2015

ये चुनौती है

 एक समय था जब हमारे देश का तमाम कामकाज अंग्रेजी में चलता था,उस समय अधिकांश भारतवासी कुछ भी समझ नहीं पाते थे.
किन्तु अब राजभाषा कर्मियों के निरंतर प्रयास से यह दिन आ गया है कि अब काफी कामकाज हिंदी में भी होने लगा है.लेकिन इसके भी अपने नुकसान हैं.अब कई अंग्रेजीदां लोग इसे समझ नहीं पाते.
 हिंदी के तमाम शिक्षकों और विशेषज्ञों के लिए इस समय एक बड़ी चुनौती है। उन्हें या तो "मुहावरों" को सुधारना होगा, या फिर बिलकुल हटा देना होगा।
होता ये है कि कोई मुहावरा बोला जाता है, यथा -"धोबी का कुत्ता,घर का न घाट का"
इसका अर्थ है कि व्यक्ति दो काम करने चला पर कोई भी पूरा नहीं कर पाया."हाथी निकल गया, कुत्ते भौंकते रह गए" का अर्थ है व्यक्ति ने आलोचना की परवाह किये बिना अपना काम कर लिया.
किन्तु हमारी संसद में यदि कोई हिन्दीभाषी ये मुहावरा बोलता है तो उसे समझे बिना कहा जाता है-"हमें कुत्ता कह दिया, हमें हाथी बता दिया"
और इस तरह जो बात 'हिंदी के प्राथमिक ज्ञान' की है उसे "असहिष्णुता"का मुद्दा बता कर संसद ठप्प कर दी जाती है.
मज़ा ये, कि संसद ठप्प करने वाले कभी ये नहीं कहते कि हमने आज न काम किया, न औरों को करने दिया, अतः हमारे वेतन-भत्ते काट लो !    

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