Thursday, April 14, 2016

सेज गगन में चाँद की [ 2 ]

खाना खाकर धरा ने छोटी वाली छत पर चटाई बिछाई और सुई-धागा खोजती हुई आले में झांक ही रही थी कि नीचे से फिर वही आवाज़ सुनाई दी। आज न जाने उसे क्या हुआ , दौड़ती हुई मुंडेर से लग कर नीचे झाँकने लगी।
वही था।  कंधे पर बड़ा सा खाली बोरा डाले ऊपर ही देख रहा था। धरा से आँखें चार होते ही झेंप गया।धरा ने भी इधर-उधर देखा, फिर मुंडेर पर ही सट कर खड़ी हो गयी। एक-दो पल उसने भी उधर देखा, फिर मायूसी और धीमी रफ़्तार से जाने के लिए आगे बढ़ने लगा। धरा को न जाने क्या सूझी, उसे पीछे से आवाज़ दे डाली।
-"ऐ  ... सुनो !"
पलट कर पीछे देखते-देखते उसकी आँखें किसी अविश्वास से फडफ़ड़ाईं , और अगले ही क्षण उसके कदम किसी मज़बूत विश्वास से थम गए। त्यौरियां ऊपर को किये हुए ही उसने ऊपर छत पर देखा।
अब धरा चुप ! क्या बोले?
लड़का भी जादू-जड़ा सा उसे देखे जाये। देखे जाये।
कोई जवाब न पाकर लड़का खड़ा-खड़ा भीत निहारता रहा फिर निचुड़े से मन से आगे बढ़ लिया।
अम्मा की चोली की उधड़ी सिलाई गौंठती धरा के हाथ में सुई जैसे थिरकने-सी लगी।  उसके कलेजे से चिपक सी गयी आवाज़ भी दूर-दूर होती गली में बिला गयी। धरा का आपा लौटा।
उसे बेचारी अपनी माँ पर भी तरस सा आने लगा- दो रोटी पेट में जाती तो खून के दो कतरे बनते न बनते, जितना खून पश्चात्ताप में ठाकुरजी के आगे बड़बड़ाते-घिघियाते फुंक गया बुढ़िया का। अच्छा उपवास रखा।
धरा ये सोच के उठी कि नुक्क्ड़ से अम्मा के लिए कोई फल-फूल ही लादे।  भूखी काया, पहाड़ सा दिन, बुढ़ापे का शरीर।
आले से बीस रूपये का नोट उठा कर धरा ने चप्पल पहनीं और धड़धड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतर गयी।
चौराहे से केले लेकर पलटी ही थी कि सामने विधाता जैसे उसका नसीब लिए खड़ा था।
वही लड़का। सत्रह-अठारह की उम्र, साँवला रंग,माथे पर चमकते छितराते काले बाल। जैसी कच्ची सी खिली-खिली उसकी आवाज़ आती थी, वैसा ही गंदुमी उजास उसके मुंह पर भी छलका दिखा। लड़का मिलिट्री रंग की सीने से खुले बटन की कमीज में झुका हुआ माचिस से बीड़ी सुलगा रहा था। उसके बाल माथे पर इतना नीचे को झुक आये थे, कि उसने समीप से गुज़रती धरा को भी एकाएक नहीं देखा। धरा ने भी बीच-बाजार ठिठक कर रुकने का कोई जोखिम नहीं लिया, और जल्दी-जल्दी डग बढ़ाती चौबारे की ओर लौटने लगी। लड़के का चेहरा  मानस पर कहीं छप गया धरा के।  [ जारी ]                         

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